कोविड महामारी की आड़ में भारत के लोकतान्त्रिक जनादेश के ख़िलाफ़ षड्यंत्र?
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इस समय हम एक वैश्विक महामारी के दौर से गुज़र रहे हैं। ये वो दौर है जब कोविड के ज़िक्र मात्र से न सिर्फ़ दुनिया भर के लोग भयभीत हो जाते हैं बल्कि, अमीर देशों को इससे हुये नुकसान का फिलहाल सही आंकलन तक लगा पाना मुश्किल है। ऐसे में भारत में आम चुनावों की प्रक्रिया द्वारा लगातार दो बार बुरी तरह पराजित मौजूदा विपक्षी राजनीतिक दलों ने भविष्य में आने वाली किसी भी दल की सरकारों का विरोध करने के लिए गगनचुंबी बैंचमार्क स्थापित कर लिए हैं।
हमारे जैसे गरीब देशों में; दुख-तकलीफ़, आवश्यक चिकित्सा सुविधाओं की आपूर्ति में कमी, मौत, लाशें, चर्मराती हुई प्रशासन व्यवस्था, डॉक्टर और अस्पतालों की कमी जैसा संघर्ष, एक ऐसा कड़वा सच हैं जिसका सामना हमें न चाहते हुये भी करना पड़ता है, जबकि हमारे विपक्षी राजनेता (जो 2014 से ही भारतीय जनमानस द्वारा चुनी हुई सरकार को जड़ से उखाड़ फेंकने के असफल प्रयासों में संलग्न हैं) और उनकी (अब बदनाम) टूल किट का अभिन्न अंग बन चुके समाचार उद्योग के कर्ताधर्ता पिछले 7 सालों से निरंतर अनर्गल अफ़वाहों और झूठ की लेखनी चला रहे हैं।
वहीं दूसरी और विस्तारवादी विचारधाराओं वाले हमारे दुश्मन देश जब एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा कर भी हमें कोई क्षति पहुंचा पाने में कामयाब नहीं हो पाए, तो उन्होंने हमारी बेबसी के आंसुओं को बिलो कर उसमें से भी मक्खन निकालने का कारनामा कर दिखाया और इस घातक बीमारी के विरुद्ध हमारे अथक संघर्ष की व्यथा बयान करती हृदयभेदी तस्वीरें (जलती हुई लाशें, रोते-बिलखते परिवार) अपने-अपने अख़बारों, वेबसाइटस और न्यूज़ चैनलस पर दिखानी शुरू कर दी ताकि उन मार्मिक तस्वीरों और असंवेदनशील हैडलाइनस के ज़रिये वह स्थानीय और अंतर्राष्ट्रीय पाठकों/दर्शकों को लुभा कर मोटा मुनाफ़ा कामने के साथ-साथ हमारी संस्कृति और परम्पराओं का भी मख़ौल उड़ा सकें, और वो भी तब जबकि हमारे दुखों और संघर्ष की दास्तान बड़ी ही मार्मिक अवस्था में है।
क्या वह देश हमारी परम्पराओं (लाश को दफ़न करने की बजाये चिता जलाना) का मज़ाक उड़ा कर यह साबित करना चाहते हैं कि हिंदुस्तान में लोगों की जान की कोई कीमत नहीं नही है? हमारे हालात और परम्पराओं की प्रदर्शनी लगाकर, हमारी आलोचना करने वालों को यह नहीं भूलना चाहिए कि उनकी अपनी संस्कृति और परम्पराओं के मुताबिक तो उन्हें अपने जीते-जी ही कीमत चुका कर पहले अपने और अपने परिवार के लिए कब्रिस्तान में ज़मीन खरीदनी पड़ती है और इतना ही नहीं बल्कि नियमानुसार ज़मीन का वह टुकड़ा उन्हें उसी चर्च/मस्ज़िद से खरीदना पड़ता है जिनके वह स्थायी सदस्य हैं। फिर मरने के बाद उन्हें अपने मृत परिजन को दफ़न करने के लिए पहले अपॉइंटमेंट लेना पड़ता है, और जबतक अपॉइंटमेंट नहीं मिलता तबतक उस मृतक का पार्थिव शरीर किसी शवगृह में रखा अपनी बारी आने का इंतज़ार करता है तब कहीं जाकर अपॉइंटमेंट वाले दिन/समय उस मृतक देह का इंतज़ार ख़त्म होता है।
लाशों और आंसुओं का मज़ाक उड़ाने वाले उन अमानुषी लोगों से मेरा एक सीधा सा सवाल है कि हमारे परिजनों की जलती चिताओं को दिखा कर आखिर आप हासिल क्या करना चाहते हैं? क्या आप चाहते हैं कि हम भी अपने जीते-जी पैसे खर्च कर अपनी लाश के अंतिम संस्कार का बंदोबस्त करने की नयी परम्परा शुरू करें और फिर मरने वाले का अंतिम संस्कार करने के लिए पहले मंदिर या शमशान घाट वालों से अपॉइंटमेंट लेकर फिर मृतक की पार्थिव देह से कहें कि ‘कृपया इंतज़ार कीजिये आप कतार में हैं?’ इन संवेदनाशून्य लोगों को यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि जब वो अपनी एक ऊँगली हमारी परम्पराओं की ओर उठा रहे हैं तो उनकी बाकी तीन उँगलियाँ उन्हीं की परम्पराओं पर सवालिया निशान लगा रही हैं।
भारत इस समय जिस त्रासदी का सामना कर रहा है, उसका सामना दुनिया के कई अन्य देश पहले कर चुके हैं और आने वाले वर्षों में कई और देश उस त्रासदी की चपेट में आते रहेंगे, लेकिन इस सबके चलते हमारे आलोचकों ने बड़ी बेशर्मी और शातिर अंदाज़ में अपने-अपने स्वार्थ की रोटियाँ सेकने के लिए देर तक सुलगने वाली भट्टियाँ तैयार कर ली हैं।
राजनीति के ये शातिर और मंझे हुये शिकारी भारत सरकार पर अपने कुटिल सवालों के गोले इस प्रकार दाग रहे हैं मानों ये सब किसी असीमित संसाधनों वाले देश के वासी हैं और वहाँ का प्रशासन आम सर्दी-जुकाम जैसी बीमारी के प्रकोप का सामना करने में विफल हो गया है। जबकि ये खुद दशकों तक सत्ता में रहते हुये भी हमारे बच्चों को एक्यूट एन्सेफलाइटिस सिंड्रोम (तेज़ बुखार और मानसिक स्थिति में बदलाव, कोमा) तक से सुरक्षा प्रदान करने में असफल रह चुके हैं। मौजूदा सरकार के कार्यभार संभालने तक साल दर साल, हजारों की संख्या में एक्यूट एन्सेफलाइटिस सिंड्रोम के मरीज़ दम तोड़ रहे थे, अतीत का वही असफल राजनीतिक गैंग आज इस भयावह दुख के समय में जिस तरह प्रशासन और सरकार के अथक प्रयासों की आलोचना कर रहा है उसे देखकर उन पर हंसी और तरस दोनों का एहसास होना स्वाभाविक ही है। अब जबकि इस मुश्किल वक़्त में विपक्ष की यह ओछी रणनीति और भावी कुचालों की फेहरिस्त का खुलासा हो गया है जो कि आने वाले दिनों में सरकार के लिए सही समय पर विपक्षी चालों को समझने में कारगर सिद्ध होगा।
मौत कभी किसी की चहेती नहीं होती, फिर भी यह होनी अटल है। कोई नहीं चाहता कि देश में संसाधनो में कमी हो फिर भी किसी भी राष्ट्र के पास, हर परिस्थिति के लिए पर्याप्त संसाधन उपलब्ध हों सकें यह दावा, उम्मीद और सच्चाई के बिलकुल विपरीत है। और वो भी उन देशों के राजनेता और मीडिया वाले हमारा मखौल उड़ा रहे हैं जिनमें से कोई तेल और ऊर्जा के संसाधनों पर नियंत्रण पाने के लिए लाखों लोगों को युद्ध करके मौत के घाट उतार देता है, तो कोई और दूसरा देश बाकी मुल्कों के लाखों किसानों की बलि सिर्फ़ इसलिए चढ़ा देता है ताकि वह अपने देश में पैदा हुये अनाज को बाहर बेच सके। कई देश इसलिए विनाशकारी हथियारों का निर्माण और निर्यात करते है ताकि वह विभिन्न देशों में फूट डलवा कर अपनी अर्थव्यवस्थाओं को चमका सकें।
यानि प्रत्येक वो राष्ट्र जहां की शासन व्यवस्था किसी दूसरे देश को एक जर्जर व्यवस्था का ढांचा मात्र होने का एहसास करवाती है कहीं न कहीं उस देश की दुर्दशा के लिए पूर्णत: अथवा आंशिक रूप से, वही देश वहाँ के लोगों की गरीबी और बेईमान फितरत के लिए दोषी होते हैं।
मोदी विरोधी तंत्र और उनका एकोसिस्टम अकसर उन पर यह आरोप लगते हैं कि वह लगातार चुनाव संचालन के लिए सक्रिय रहते हैं। लेकिन क्या उन्होने कभी खुद से यह सवाल पूछा है कि जब मोदी के धूर-विरोधी विपक्षी दल राष्ट्रीय मुद्दों को उठाने के लिए आगामी चुनावों तक का इंतजार नहीं कर सकते तो ऐसे हालात में मोदी को आखिर क्या करना चाहिए? अगर कोविड महामारी को संभालने में मोदी विफल हुये हैं, तो विपक्ष को भारतीय लोकतंत्र और मतदाताओं पर भरोसा करना चाहिए ताकि वही अगली बार मोदी को सत्ता से उखाड़ बाहर कर दें। वैसे भी भारत के कई राज्यों में हर साल चुनाव होते ही रहते हैं। लेकिन झूठ के दानव का आकार जितना भी बड़ा हो, पर उसकी उम्र महीनों और सालों जितनी लंबी नहीं होती, इसलिए मोदी विरोधियों को बेबुनियाद मुद्दे गढ़ने पड़ते हैं, एक के बाद एक झूठी खबरें फैलानी पड़ती हैं, लेकिन जब संबन्धित विभाग के लोग संसद में उनके झूठे आरोपों का जवाब देने के लिए हाजिर होते है तब यही विपक्ष के लोग उस संसदीय बहस का बहिष्कार कर देते हैं। और फिर यही लोग मोदी से यह उम्मीद लगाते हैं कि वह बड़े पैमाने पर मिले मतादेश का अनादर कर सत्ता त्याग दें!
जब संसद के बाहर या अंदर मोदी बोलते हैं तब लोग न सिर्फ़ उन्हें सुनते हैं बल्कि मतदाता के रूप में उनका समर्थन भी करते हैं। ऐसे में मोदी द्वारा विपक्ष की पोल खोलने पर ये लोग खिसियानी बिल्ली की तरह मोदी पर चुनाव संचालन में सक्रिय होने का दोष मढ़ने लगते हैं! यानि सौ बातों की एक बात यह है कि विपक्ष के लोग मोदी और उनकी सरकार को उनके खिलाफ फैलाए जा रहे झूठ के बाणों की बोछार से छलनी करना चाहते हैं, मोदी को हराने की विपक्ष की यह निष्फल कोशिशें इस महामारी के दौर में भी निर्विघन जारी हैं, उनका यह सारा प्रपंच ओछी राजनीति से प्रेरित है, जिसका मकसद हर हाल में मौजूदा सरकार को गिरा कर सत्ता व्यवस्था को या तो हथियाना है या बाधित करना है।
मैं आपको एक छोटा सा उदाहरण देता हूं। करीब 2 सप्ताह पहले दिल्ली के एक आईआईटी ग्रेजुएट मुख्यमंत्री ने घोषणा की थी कि दिल्ली में ऑक्सीजन की कोई कमी नहीं है। फिर 2 दिन बाद उनके सुर बदले और उन्होंने यह राग अलापना शुरू कर दिया कि दिल्ली में अचानक, चमत्कारी रूप से ऑक्सीजन आपूर्ति में कुछ कमी हो गयी है और उन्हें तत्काल 490 मीट्रिक टन O2 की आवश्यकता है। उसके बाद वह 490 मीट्रिक टन की कमी 700 मीट्रिक टन से होते-होते सप्ताह भर के अंदर 950 मीट्रिक टन तक पहुँच गई। मैं दुनिया की सबसे अमीर अर्थव्यवस्था और संसाधनों वाले देशों को खुली चुनौती देता हूं कि वह इस तरह के किसी अराजकतावादी नेता की सनक के मुताबिक प्रतिदिन 100-200 मीट्रिक टन अतिरिक्त ऑक्सीजन की आवश्यकता के फरमान को जादुई तरीके से पूरा करके दिखाएं।
इन्हीं महानुभव ने मार्च 2021 के शुरू में अपने माता-पिता सहित टेलीविजन स्क्रीन पर प्रकट होकर लोगों से ‘कोविड टीकाकरण करवाने और उसके हानिरहित’ होने आदि का संदेश भी दिया था। अब ज़रा और गौर से पढ़ें, ‘भारत सरकार’ ने जनवरी में भारत में टीकाकरण अभियान का शुभारंभ किया किया था, तब मोदी ने हाथ जोड़कर लोगों से टीकाकरण कराने की अपील की थी। उस समय मोदी विरोधी इन तमाम दस्तों ने अपने-अपने समाचार उद्योग संचालकों को इंटरव्यू दिये और उनके माध्यम से यह सवाल और बवाल उठाया कि आखिर मोदी जनता को चूहों की तरह कोविड वैक्सीन की प्रयोगशाला में क्यों धकेल रहे हैं? और ‘क्या मोदी अपने कॉर्पोरेट मित्रों के कहने पर देशवासियों पर कोविड वैक्सीन का परीक्षण करवा रहे हैं’?
वैक्सीन को लेकर चारों ओर इतनी नकारात्मकता आखिर क्यों फैलाई गई थी? सीधी सी बात है बाकी दवाइयों की तरह कोविड वैक्सीन की भी एक्सपायरी डेट होती है, ऐसे में भारत के सीरम इंस्टीट्यूट द्वारा निर्मित वैक्सीन के प्रारंभिक बैच की एक्सपायरी डेट मार्च 2021 तक होती, उस तारीख तक वैक्सीन इस्तेमाल न करने का मतलब इसके निर्माता और उसकी कंपनी की बर्बादी था। जिसने न सिर्फ़ इस वैक्सीन की रिसर्च पर करोड़ों रुपयों का निवेश किया था, बल्कि वैक्सीन के शुरुआती नतीजों के आधार पर, अगस्त/सितंबर तक उसके उत्पादन की सारी तैयारी भी की होगी। ताकि आईसीएमआर द्वारा मंजूरी मिलते ही देश में ज़्यादा से ज़्यादा मात्रा में वैक्सीन उपलब्ध हो सके।
प्रधानमंत्री श्री मोदी के नेतृत्व में भारत सरकार ने लोगों की भलाई के लिए दुनिया के सबसे बड़े वैक्सीन निर्माता के साथ न सिर्फ़ एक महान और महत्वपूर्ण साझेदारी की थी, बल्कि यह साझेदारी ‘मेक इन इंडिया’ की दिशा में भी एक बड़ा कदम था। ऐसे में अपने सभी कम्युनिस्टों, राजवंशों और उनकी टूल किट में शामिल राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय सहभागियों के रूप में मौजूद भारी-भरकम रुकवटों के बावजूद भारत, कोविड को मात देने वाला एक बेमिसाल विश्व नेता होने का गौरव हासिल कर सकता था।
लेकिन क्या ग्लोबल फ़ार्मास्युटिकल उद्योग के दिग्गज इतनी आसानी से भारत को इतनी बड़ी उपलब्धि हासिल करने देते? दुनिया के वे तथाकथित नेता, जो गरीब मुल्कों के बाजारों में शांति या ज़ोरज़बरदस्ती कर दाखिल होना चाहते थे, जिनके कारोबार की नीव गरीब और मजबूरों के आंसुओं पर रखी जाती है, क्या उन्हें ये बात गवारा होती कि इस भीषण वैश्विक आपदा के समय, भारत जैसा विकासशील देश अपने बलबूते पर दुनिया भर के देशों के लिए उम्मीद की इकलौती किरण बन जाए? और उनके हाथ से अरबों-खरबों डॉलर कमाने का बेहतरीन मौका इतनी आसानी से निकल जाए? इन सभी प्रश्नो का एक ही उत्तर है “नहीं”। इन सब मौकापरस्त लोगों के पालनहार और स्थानीय राजनीतिक भक्षक एक ऐसी तबाही मचाने पर उतारू हो गए जिसकी आड़ में बड़े भाई (अमरीका/चीन/रूस जैसे देश) को दखलअंदाजी कर अपनी उपस्थिती और अहमियत सिद्ध करने का मौका मिले सके।
मोदी ने विश्व के पूर्वलिखित सिद्धांत को चुनौती देने की हिम्मत दिखाई है, उसने निस्वार्थ भाव से दुनिया की डूबती नैया का खिवैया होने का दुस्साहस किया है जिसे किसी भी हाल में सफल होने नहीं दिया जा सकता। ऐसे में आईसीएमआर द्वारा टीकाकरण के लिए हरी झंडी मिलते ही भाजपा/मोदी/आरएसएस विरोधिओं की झूठ और अफवाहों की फैक्ट्री में उत्पादन तेज़ हो गया। ‘यह वैक्सीन बिना परीक्षण पूरा किए बाज़ार में उतार दी है; ‘मोदी अपने कॉरपोरेट मित्रों को लाभ पहुंचाने के लिए लोगों को मार देगा और इस वैक्सीन के जरिये भाजपा/मोदी/आरएसएस मिलकर भारत के मुसलमानों को नपुंसक बनाने की कोशिश करने जा रहे हैं’, जैसी अफ़वाहों की मानो देश में बाढ़ आ गयी थी। इसलिए भाजपा समर्थकों/मतदाताओं और आरएसएस विचारधारा के समर्थकों के अतिरिक्त मूलतः कोई और इस वैक्सीन को लगवाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था।
कोविड के खिलाफ़ अफ़वाहों का बाज़ार कुछ इस कदर गरमाया कि लोग मुफ़्त में भी इस वैक्सीन को लगवाने के लिए तैयार नहीं थे, ऐसे में खौफ़ज़दा लोगों के मन से डर निकालने के लिए हम जैसे लोगों को आगे आना पड़ा और इसके सुरक्षित होने का संदेश जन-जन तक पहुंचाने के लिए हमने हर एक सोश्ल मीडिया प्लेटफॉर्म पर वैक्सीन लगवाते हुये अपनी तस्वीरों को एक बार नहीं बल्कि बार-बार पोस्ट किया था।
यही नहीं उस तैयार वैक्सीन के रूप में भारत पर लगभग एक बिलियन डालर का बोझ था, जिसमें मानवीय स्तर पर की गई कई वैश्विक प्रतिबद्धताएँ भी शामिल थीं। ऐसे में जो भी देश हमसे वैक्सीन लेने के लिए आगे आया, सरकार ने उन्हें सहायता प्रदान करने के साथ-साथ आर्थिक स्तर पर उनके साथ व्यापार भी किया। लेकिन घरेलू मैदान में मोदी और सरकार के खिलाफ़ विष-वमन करने वालों की बेशर्मी की इंतेहा अभी नहीं हुई थी। मार्च के अंत तक, आईसीएमआर ने सिलसिलेवार परामर्श किए और वैक्सीन की एक्स्पायरी डेट की समय सीमा 3 महीने और बढ़ा दी, जिसका सीधा सा मतलब था कि तैयार वैक्सीन को 6 महीने की बजाय 9 महीने तक इस्तेमाल किया जा सकता था। इस घोषणा से मोदी/भाजपा/ भारतीय कारपोरेट जगत का विरोधी माफ़िया चारों खाने चित्त हो गया।
फिर अचानक सभी गैर-भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्री कोविड वैक्सीन को बढ़ावा देने के लिए टीवी पर अवतरित होने लगे, और वही वैक्सीन जिसे इन लोगों ने कूड़े के ढेर में तबदील करने का षड्यंत्र रचा था, बाज़ार में उसी वैक्सीन की मांग रातों-रात तेज़ हो गयी। ऐसे में वैक्सीन आपूर्ति में कमी होना स्वाभाविक था और तब सरकार विरोधी दस्ते के मंझे हुये खिलाड़ी इस अफ़वाह को फैलाने में जुट गये कि देश में वैक्सीन की कमी है, मानो पहला टीका लगते ही तथाकथित दूसरी लहर को थाम लिया जाता।
बहरहाल, यह बात सभी जानते हैं वैक्सीन की कमी का सामना करते ही दर्जन भर राजनीतिक राजवंशों, कम्युनिस्टों और अराजकतावादियों के वफ़ादार मतदाता (जिनमें मुख्यरूप से कम पढे-लिखे तबके के लोग ज़्यादा हैं) एकत्रित हो गए और उन सभी ने मिलकर मोदी सरकार के खिलाफ़ गलियों की बौछारें शुरू कर दी।
नतीजतन, वैक्सीन के अन्य ब्रांड आदि के लिए लॉबिंग शुरू हो गई और एसआईआई और भारत बायोटेक के ‘मेक इन इंडिया’ उत्पादों द्वारा नियंत्रित बाज़ार को फिर अमेरिकी और रूसी निर्माताओं के लिए खोल दिया गया। इतना ही नहीं, अब हम पीपीई किट और मास्क भी आयात कर रहे हैं (हालांकि हमें उनकी आवश्यकता नहीं है लेकिन वैक्सीन विक्रेता देशों की यह पूर्व निर्धारित शर्ते हैं)। जबकि हम सब अच्छी तरह जानते हैं उन मास्क और पीपीई किट का हश्र भी वही होगा जो सरकार द्वारा एमएसपी पर खरीदे गए असीमित अनाज और धान (जोकि बेकार जाता है) का होता है।
तो संलग्न चित्र में दर्शित यह गिद्ध पास ही सिर झुकाये बैठे, छोटे बच्चे की मौत की प्रतीक्षा कर रहा है या नहीं यह तो पता नहीं (क्योंकि गिद्ध अपने शिकार को उठा कर ऊंचाई से फेंक कर भी मार सकता है), लेकिन इतना तो तय है कि समूचे भारतवर्ष के दुश्मनों की लिस्ट में शामिल ‘विपक्षी राजनीतिक दल, समाचार उद्योग संचालक, पश्चिमी मीडिया को भारतीय खबरों की रसद पहुंचाने वाले (या यूँ कहें कि पश्चिमी मीडिया) दस्तों’ की तुलना सिर्फ़ इस गिद्ध से करना उनकी शातिरता और बेशर्मी को कम आंकना होगा बल्कि इनकी तुलना तो राक्षस, दानव, शिकारी, नरभक्षीयों से करनी चाहिए क्योंकि ये लोग प्रशासन व्यवस्था की हर कड़ी को तोड़ने, लोगों को मरवाने और उनकी लाशों पर अपने स्वार्थ की रोटियाँ सेकने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं।
- अतुल पांडे, फ़िल्मकार, राजनीतिक विचारक