Opinion

स्वाधीनता के अमृत महोत्सव – अनुपम प्रेरणापुंज कोथाई

चेन्नई।चेन्नई के पार्थसारथी मंदिर में महात्मा गाँधी और कस्तूरबा महिलाओं के लिए विशेष रूप से आयोजित एक बैठक में उपस्थित हुए थे। उस बैठक में कस्तूरबा ने हरिजन सेवा के काम को आगे बढ़ाने के लिए मुक्त हस्त से दान देने का आग्रह किया। एक सामान्य सी दिखनेवाली महिला आगे आयी , उन्होने मंच पर आकर अपने कंगन , चूड़ी , अंगूठी , नथ , कुण्डल सबकुछ एक -एक करके उतारकर महात्मा गाँधी के चरणों में रख दिए। वह महिला उस स्थान से लगभग १०० मीटर की दूरी पर स्थित अपने घर गयीं तो उनका देखकर घरवाले स्तब्ध हो गए की उन्होने अपने गहने दान कर दिए , लेकिन उक्त महिला ने जो उत्तर दिया उसके बाद का परिणाम और अधिक अचंभित करनेवाला था। उनके घर के सभी लोग अपने -अपने दागिने लेकर आये और महात्मा गाँधी को दान में दे दिया। उस महान दानवीरांगना का नाम वैथामानिधि मुदुमबई कोथायनाइकी अम्माल था। संत कवि अंडाल का दूसरा नाम कोथाई भी है। इस कोथाई ने भी नेतृत्व के क्षेत्र में अनुकरणीय सिद्धांत प्रतिपादित किये जिसमें टीम को नियन्त्रण में न रखकर स्नेह और करुणा से मार्गदर्शन देना होता है। इसके साथ ही सहयोग और कर्मठता सबसे पहले दिखाई जाती है।
एक दिसंबर १९०१ को जन्मी और मात्रा पांच वर्ष की आयु में विवाहित कोथाई औपचारिक शिक्षा न पाने के बाद भी सदियों तक प्रेरणा का केंद्र बनी रहेंगीं। इस बहुमुखी प्रतिभा की धनी महिला के जीवन के कुछ अध्याय पर हम यहाँ प्रकाश डालेंगे।

कस्तूरबा और महात्मा गाँधी को मिलने के बाद १९२५ में कोथाई ने खादी पहनना और मद्रास की गलियों में खादी का प्रचार प्रारम्भ कर दिया था। वह बहुत अच्छी वक्ता भी थीं और लोगों को ब्रितानी सरकार के विरुद्ध सम्भाषण करती थीं। कोथाई की पुत्रवधु पद्मिनी बताती हैं कि उन्होने कई मोर्चों में हिस्सा लिया और कुछ का नेतृत्व भी किया. एक बार वह मोर्चा लेकर जा रही थी तो पुलिस ने पानी की बौछार से उनको भगाने का प्रयास किया किन्तु कोथाई ने नारेबाजी बंद नहीं की तो पुलिस ने उनको पकड़कर वेल्लूर जेल भेज दिया।

अपने प्रयासों और स्वाध्याय से उन्होने शास्त्रीय संगीत में निपुणता प्राप्त की। वह महाकवि भारतियार की कवितायेँ गए गए कर लोगों क प्रेरित करती थीं। एक बार उनको गाते हुए स्वयं भारतियार ने भी सुना तो कोथाई की भूरि भूरि प्रशंसा की। कोथाई ने नवांकुर कलाकारों को भारती के गीतों और कविताओं को गाने का प्रशिक्षण भी दिया. उनके शिष्यों में प्रसिद्द कलाकार डी के पट्टामाल भी सम्मिलित हैं। १९३८ में जब ऑल इण्डिया रेडियो शुरू हुआ तो राजाजी ने उनको प्रार्थना गीत गाने को कहा। वह उनका पहला गायकी का अनुभव रहा.

१९२५ में प्रसिद्द लेखक वदवूर डोराइसामी अयंगर की सलाह पर उन्होने ‘जगमोहिणी ‘ पत्रिका का अधिग्रहण कर लिया जिसे आयंगर जी पिछले दो सालों से चला रहे थे. चार महीने के भीतर ही कोथाई ने उसकी प्रसार संख्या बढ़ाकर १००० प्रतियां कर दी. इस तरह वह तमिल की पहली महिला सम्पादक हुईं। परन्तु उनके समाज के लोगों को यह स्वीकार नहीं था इसलिए उन्होने जगमोहिणी की प्रतियां जलाकर अपना विरोध व्यक्त किया। लेकिन कोथाई को इससे फर्क नहीं पड़ा। स्वाधीनता संग्राम में जब -जब वह जेल गेन उन्होने इस पत्रिका के लिए लेखन जारी रखा। उनके पति वी एम् सम्पत जब उनको मिलने जाते थे तो वह चुपके से अपना लेख उनको दे देती थीं।

कोथाई पहली उपन्यासकार भी थीं। अपने उपन्यासों में उन्होने सादा जीवन और उच्च विचार को प्रमुखता दी. उनका पहला उपन्यास धारावाहिक के रूप में उनकी पत्रिका जगमोहनी में पहले छपा फिर लिफ्को प्रकाशन ने उसको पुस्तक के रूप में छापा। इस उपन्यास की समीक्षा दी हिन्दू और स्वदेशमित्रन जैसे प्रतिष्ठित दैनिकों में भी प्रकाशित हुईं। उनका दूसरा उपन्यास ‘ पद्मा सुंदरम ‘ तो मलयाली भाषा में भी अनुदित हुआ।

उनकी पोती विजयालक्ष्मी बताती हैं कि विधवा पुनर्विवाह विषय पर उनका लिखा उपन्यास ” अपराधी ” एस रामनाथन चेट्टियार को इतना पसंद आया कि उन्होने हज़ारों विधवाओं का पुनर्विवाह स्वयं करवाया। वर्ष १९३७ आते -आते उनकी पत्रिका की मांग मलयेशिया, पेंगोंग , रंगून और दक्षिण अफ्रीका में भी बढ़ गई। महात्मा गाँधी की मृत्यु के बाद कोथाई ने महात्माजी सेवा संगम की स्थापना की और बच्चों को संगीत , नृत्य, सम्भाषण कला और हिंदी भाषा की शिक्षा देना प्रारम्भ किया। उन्होने वहां सांस्कृतिक कार्यक्रम और परिचर्चाएं भी आयोजित की।

कोथाई फिल्म सेंसर बोर्ड की सदस्य भी रहीं। एक बार उन्होने अध्रिष्ठम नामक फिल्म में एक दृश्य हटाने का निर्देश दिया किन्तु सिनेमा हाल में वह फिल्म देखते हुए उनको पता चला की वह दृश्य तो हटाया ही नहीं गया, बस उन्होने हंगामा खड़ा कर दिया। उस दृश्य को फिल्म से हटवाने के बाद उन्होने अपनी पत्रिका के माध्यम से सभी को सचेत किया की उक्त फिल्म में यदि दुबारा वह दृश्य किसी को दिखे तो उसकी सूचना उनको दे । सार रूप में हम कह सकते हैं कि कोथाई को हिन्दू जीवन पद्धति से अपनी प्रतिभाओं के विकास में काफी सहायता मिली। दूरदर्शी पति और ससुरालवालों के दृढ़ सहयोग के कारण कोथाई अपना नाम बना सकीं।

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