विवाह की न्यूनतम आयु २१ वर्ष करना क्या देश की पहली पेशेवर महिला चिकित्सक को श्रद्धांजलि है?
केंद्र सरकार ने हाल ही में विवाह की न्यूनतम आयु २१ वर्ष करने का विधान लागू कर दिया है। इसके साथ ही देश भर में वाद -विवाद का वातावरण बन गया है। मुट्ठी भर जिहादी जाहिलों ने इसका विरोध शुरू किया है क्योंकि इससे उनके ‘लव जेहाद’ , ‘बहुपत्नीक प्रथा’ और ‘जनसंख्या बढ़ाने’ जैसे लक्ष्यों पर रोक लगने की आशंका उनको है। लेकिन अगर मानवता और महिलाओं की आवश्यकता को ध्यान में रखें तो यह एक उचित कदम इसलिए भी लगता है कि मेडिकल डिग्री प्राप्त करनेवाली तीसरी किंतु पेशेवर रूप से चिकित्सा करनेवाली भारत की पहली महिला चिकित्सक डॉक्टर रूकमाबाई राउत ने इसके लिए १८८४ से १८८८ तक देश ही नहीं बल्कि लन्दन की ब्रिटिश कोर्ट तक कानूनी लड़ाई लड़ी।
देश की पहली महिला चिकित्सक भागलपुर की कादंबिनी गांगुली और दूसरी आनंदी गोपाल जोशी (शोलापुर ) की थीं लेकिन पहली महिला प्रैक्टिशनर डॉक्टर रुकमाबाई राउत थीं।
रुखमाबाई स्वयं महिला रोग विशेषज्ञ थीं तो महिलाओं के शरीर के जीव वैज्ञानिक अध्ययन का सहारा लेकर रूकमाबाई राउत ने १८९१ में “ऐज ऑफ़ कंसेंट एक्ट ‘ बनाने पर तत्कालीन अंग्रेज सरकार को बाध्य कर दिया था।
जब तक वह कानूनी लड़ाई लड़ती रहीं पूरे देश में ‘कानून बनाम परम्परा’ , ‘सामाजिक सुधार बनाम रूढ़ि’ पर बहस होती रही। उन्होने सिद्ध किया कि बच्चियों का विवाह उनकी इच्छा के बिना या विपरीत करना हिंदुस्तान की परम्परा नहीं थी। यह रोग एक सामाजिक विवशता के रूप में पनपा क्योंकि चंगेज खानों और मुगलिया सल्तनत के अत्याचारों-व्याभिचारों से बचाव के लिए हिन्दू समाज के समक्ष तब यही एक मार्ग बचा होगा। रूकमाबाई ने सनातनी साहित्यों के हवाले से बताया कि हमारे समाज में महिलाओं को हर तरह की शिक्षा दिए जाने की व्यवस्था थी और वह सिर्फ यौन और गृह कार्यों के लिए नहीं बनी थी बल्कि हमारे समाज की महिलाएं पुरुषों के साथ कंधे-से-कंधा मिलाकर समाज और देश के नवनिर्माण के कार्यं में अपनी सहभागिता सुनिश्चित करती थीं। हमारे समाज में स्वयंवर की प्रथा थी और किसी भी महिला को उसकी अनुमति के बिना कोई छू भी नहीं सकता था। वैसे जब तक अभी छिडी बहस किसी परिणाम तक पहुंचे, यह रोचक होगा कि हम रूकमाबाई की लड़ाई पर एक नज़र डालें।
रूकमाबाई राउत का विवाह ११ वर्ष की नाज़ुक उम्र में उनके सौतेले पिता डॉ सखराम अर्जुन ने भीकाजी के साथ करा दिया था। महाराष्ट्र की परम्परा के अनुसार वह अगले आठ वर्षों तक अपने मायके में ही रही। जब वह २० वर्ष की हुई तो भीकाजी उन्हें अपने घर ले जाना चाहा तो रूकमाबाई ने उनके साथ जाने से मना कर दिया। डॉ. एडिट फिप्सन के दवाब पर रूकमाबाई की इच्छा का आदर करते हुए उनके सौतेले पिता ने अपने दामाद भीकाजी को कह दिया कि वे अपनी बेटी को उसकी इच्छा के विरुद्ध नहीं भेजेंगे। मामला कोर्ट में गया और वहां रूकमाबाई केस हार गयीं।
इस बीच, टाइम्स ऑफ इंडिया में “ए हिंदू लेडी” के छद्म नाम से लिखे गए लेखों की एक श्रृंखला के चलते सार्वजनिक प्रतिक्रियाएं हुईं। और यहां से इंग्लैंड में नारीवादी दृष्टिकोण पर कई चर्चाओं की शुरुआत हुयी। साथ ही विवाद के कई बिंदुओं पर सार्वजनिक बहस चलती रही – हिंदू बनाम इंग्लिश कानून, बाहर बनाम अंदर से सुधार, प्राचीन रिवाज़ का सम्मान किया जाना चाहिए या नहीं और अन्य।
४ फरवरी १८८७ को न्यायमूर्ति फर्रन ने रूखमाबाई को अपने पति के साथ रहने या छह महीने की कारावास का सामना करने का आदेश दिया। रुखमाबाई ने बहादुरी से लिखा कि वह इस फैसले का पालन करने के बजाय अधिकतम दंड भुगतेगी। इसके कारण आगे और उथल-पुथल और बहस हुई। इससे उन पर बहुत से लांछन लगे, कुछ लोगों ने उनपर पथराव भी किया और जब मुंबई में जीना बहुत कठिन हो गया तो वह आगे की पढ़ाई के लिए पांच महीने तक समुद्री यात्रा करके इंग्लॅण्ड चली गयीं। इसके कुछ ही दिनों के बाद १८८९ में उनके पास एक केस आया – ११ वर्ष की फूलमती दास का विवाह ३५ वर्ष के हरिमोहन मैती के साथ कर दिया गया था। हरिमोहन ने फूलमती के साथ बलपूर्वक यौन सम्बन्ध बनाये जिससे उनको आंतरिक रक्तश्राव हो गया और इसकी वजह से चल बसी। रूकमाबाई ने इंग्लॅण्ड में इस मामले को प्रिंस चार्ल्स के समक्ष उठाया और रानी विक्टोरिया के शासन काल में भी महिलाओं की ऐसी दुरावस्था पर प्रश्न उठाए ?
रानी विक्टोरिया के निर्देश पर प्रभावशाली ब्रिटिशों और एंग्लो-इंडियंस की एक कमेटी बनाई गयी। उस कमेटी ने १८९१ में अपनी अनुशंसाएं दीं जिसके आधार पर १९ मार्च १८९१ को लार्ड लैंसडोन ने कानून बनाया कि १२ वर्ष से कम उम्र की बच्ची के साथ शारीरिक सम्बन्ध नहीं बनाये जा सकते, पर पारसी समाजसेवक और पत्रकार बेहराम जी मलबरी, रूकमाबाई राउत ,पंडिता रमाबाई , डॉ आनंदी गोपाल जोशी इससे संतुष्ट नहीं थीं और इन सबने मिलकर महिलाओं के लिए विवाह की उम्र बढ़ाने का संघर्ष जारी रखा। इस बीच रूकमाबाई राउत ने अपने पति से विवाह विच्छेद का मुकदमा भी दाखिल कर दिया। इनके संघर्ष का परिणाम यह हुआ कि जल्द ही एज ऑफ़ कंसेंट एक्ट १८९१ में संशोधन कर शारीरिक सम्बन्ध बनाने के लिए पत्नी की न्यूनतम उम्र १५ वर्ष कर दी गयी। रूकमाबाई राउत ने पूरे देश में महिलाओं के लिए चिकित्सकीय शिक्षा सुलभ कराने की भी लम्बी कानूनी लड़ाई लड़ी।
ब्रिटिश भारत में महिलाओं के अधिकारों के लिए लड़ने वाले प्रेरक लोगों में से रुकमाबाई एक थीं। महिलाओं के खिलाफ भेदभाव करने वाले सामाजिक सम्मेलनों और रीति-रिवाजों के प्रति उनकी अवज्ञा ने १८८० के रूढ़िवादी भारतीय समाज में बहुत से लोगों को हिलाकर रख दिया।