विश्व भाषा हिंदी: अद्यतन संदर्भ
आज हिंदी संपूर्ण विश्व में सबसे अधिक बोली और समझी जाने वाली भाषा है।इसका एक कारण यह भी है कि हिंदी अनेक बोलियों से समन्वित भाषा है।उसका देश- विदेश में अपना संयुक्त परिवार है।आज जितने लोग मातृभाषा अथवा पहली भाषा के रूप में हिंदी का प्रयोग करते हैं , उससे कहीं अधिक लोग उसका प्रयोग द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ, पंचम और विदेशी भाषा के रूप में प्रयोग करते हैं।इस समय संपूर्ण विश्व में बहुभाषिकता को बढ़ावा मिल रहा है।फलतः हिंदी संपूर्ण विश्व में 65 करोड़ लोगों की पहली भाषा और 50 करोड़ लोगों की दूसरी और तीसरी भाषा है ।वह गुजरात, महाराष्ट्र, पंजाब, जम्मू-कश्मीर, कर्नाटक, केरल, तेलंगाना तथा पूर्वोत्तर के भारतीय राज्यों और अधिकांश केन्द्र शासित प्रदेशों तथा नेपाल, भूटान, पाकिस्तान,बांग्लादेश,संयुक्त अरब अमीरात, ओमान, फिजी, मारीशस, थाईलैंड, सूरीनाम , त्रिनिदाद और गयाना जैसे देशों में दूसरी एवं तीसरी भाषा के रूप में प्रयुक्त होती है। शेष विश्व में लगभग 20 करोड़ लोगों द्वारा चौथी, पांचवी और विदेशी भाषा के रूप में प्रयुक्त होती है। इस तरह संपूर्ण विश्व में 135 करोड़ लोग किसी- न- किसी रूप में हिंदी बोल अथवा समझ लेते हैं।यही पद्धति अंग्रेजी और चीन की भाषा मंदारिन का आकलन करने वाले भी अपनाते हैं । अंग्रेजी की संख्या का आकलन करने वाले उन भारतीयों को भी अंग्रेजी बोलने वालों में शुमार करते हैं जो अंग्रेजी माध्यम से पढ़े हैं।यद्यपि अमेरिकी- ब्रिटिश और ऑस्ट्रेलियाई अंग्रेजी में पर्याप्त अंतर है लेकिन उन्हें अलग भाषा के रूप में उल्लिखित नहीं किया जाता है।ठीक इसी तरह चीन की भाषा मंदारिन भी 56 बोलियों और विभाषाओं से समन्वित है। लेकिन चीन सरकार उन्हें अलग नहीं मानती। चीन में मंदारिन के अलावा कैंटोनी, अंग्रेजी, पुर्तगाली, यूगुर, तिब्बती, मंगोली और झियांग को भी आधिकारिक भाषा का दर्जा प्राप्त है। भारत में 82% भारतीय हिंदी बोल अथवा समझ सकते हैं जबकि चीन में केवल 62% लोग ही मंदारिन बोल अथवा समझ पाते हैं।
इस समय भारत की जनसंख्या 138 करोड़ जबकि अमेरिका की 33 करोड़, कनाडा की लगभग 4 करोड़ , संपूर्ण यूरोप की 75 करोड़, रूस की 15 करोड़ और ऑस्ट्रेलिया की ढाई करोड़ है। कहने का आशय यह है कि इस समय धरती के लगभग 60% हिस्से पर जितनी जनसख्या रहती है उससे अधिक जनसंख्या भारत जैसे संपूर्ण विश्व के 6% से भी कम क्षेत्रफल वाले देश में रहती है।इस दृष्टि से भी हिंदी का पलड़ा भारी है।हमारी जनसंख्या हिंदी के संख्याबल का सबसे बड़ा आधार है।
डाॅ.जयंती प्रसाद नौटियाल ने भी हिंदी जानने वालों की संख्या का आकलन किया है ।इन्होंने अपने शोध में बोलने वालों की संख्या में उर्दू का भी हिंदी के अंतर्गत समावेश किया है जो व्यावहारिक रूप से सही है ।चूंकि उर्दू का अपना कोई व्याकरण नहीं है और वह अपनी भाषिक संरचना एवं शब्द- संपदा के लिए मूल रूप से हिंदी पर ही निर्भर है। अतः वह भाषा- वैज्ञानिक दृष्टि से लिपिभेद के बावजूद हिंदी की एक शैली मात्र है।ध्यान रहे यह बात केवल बोलने के संदर्भ में है, हिंदी में काम करने वालों को लेकर नहीं है।इस दृष्टि से चीजों को सही संदर्भ में समझने की अपेक्षा है।
आज डिजिटल विश्व में हिंदी सबसे तीव्र गति से बढ़ने वाली भाषा है।अब स्वयं गूगल का सर्वेक्षण यह सिद्ध करता है कि इंटरनेट पर हिंदी में प्रस्तुत होने वाली सामग्री में विगत 5 वर्षों में 94% की दर से इजाफा हुआ है जबकि अंग्रेजी केवल 19% की दर से बढ़ रही है।इस समय भारत में 75 करोड़ लोगों के पास स्मार्ट फोन है जिसमें से 63 करोड़ से अधिक लोग हिंदी का प्रयोग करते हैं।भारत के 93% युवा यू- ट्यूब पर हिंदी का ही प्रयोग करते हैं।भारतीयों द्वारा हर महीने गूगल प्ले स्टोर से एक अरब ऐप्स डाउनलोड किए जाते हैं।हिंदी वाॅयस सर्च क्वेरी 400% की दर से प्रतिवर्ष बढ़ रही है और सोशल मीडिया हिंदी जानने वालों का सबसे बड़ा पटल बन गया है।इस समय जो तकनीकी सुविधा अंग्रेजी में उपलब्ध है वह हिंदी में भी उपलब्ध है। इस समय अंग्रेजी की तुलना में फेसबुक , ट्विटर पर हिंदी ज्यादा लोकप्रिय है। इसका सबसे बड़ा कारण अभिव्यक्ति की सरलता है। इसलिए अंग्रेजी की तुलना में हिंदी में प्रस्तुत होने वाली सामग्री ज्यादा शेयर भी की जाती है।अब ब्लॉगिंग के महासागर में हिंदी की उत्ताल तरंगें देखी जा सकती हैं।भारत निकट भविष्य में विश्व का सबसे बड़ा इंटरनेट उपभोक्ता बनने जा रहा है जिसका सबसे प्रभावी माध्यम हिंदी रहने वाली है।सोशल मीडिया के कारण अब ई-मेल भी अप्रासंगिक हो रहा है। अब भाषाओं का प्रशिक्षण भी ई-लर्निंग के माध्यम से संभव है। हिंदी में इस समय जो वेब लिंक्स उपलब्ध हैं उनमें राष्ट्रीय पोर्टल, साहित्य कोश और शब्दकोश संबंधी पोर्टल, शिक्षा एवं हिंदी शिक्षण संबंधी पोर्टल, धर्म एवं खेल संबंधी पोर्टल , पत्र-पत्रिकाओं तथा विविध चैनलों के पोर्टल का समावेश है। एक नवीनतम सूचना यह भी है कि नेट फेलिक्स (Netflix) अब पूरी तरह से हिंदी में उपलब्ध है।आप आमेजान पर भी हिंदी में आदेश भेज सकते हैं। संक्षेप में, आज वे सारी तकनीकी सुविधाएं जो विश्व की किसी भी भाषा के पास हैं , वे हिंदी में या तो उपलब्ध हैं अथवा बनने की प्रक्रिया में हैं।
जब हम भाषाओं के भविष्य पर विचार करें तो यह भी जरूरी है कि हम उनके इतिहास और वर्तमान स्वरूप को भी समझ लें। हिंदी लगभग एक हजार सालों से अलग-अलग रजवाड़ों और जनपदों में राजकीय भाषा रही है। वह स्वाधीनता आन्दोलन के इतिहास में संवाद का मुख्य जरिया बनकर उभरती है और खैबर के दर्रे से लेकर रंगून तक वह स्वाधीनता आन्दोलन की अभिव्यक्ति का स्वाभाविक माध्यम बनती है। अपनी इसी ऐतिहासिक भूमिका के कारण वह स्वतंत्र भारत की राजभाषा बनती है।वह लंबे समय तक नेपाल की भी दूसरी राजभाषा रही है जिसका दर्जा वहां की कम्युनिस्ट सरकार ने समाप्त कर दिया है। हिंदी इस समय भारत के अलावा फिजी एवं संयुक्त अरब अमीरात में भी आधिकारिक भाषा बन गयी है। अब संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी अपना ट्विटर हैंडल हिंदी में आरंभ कर दिया है। उसकी वेबसाइट भी हिंदी में उपलब्ध है।वह हर शुक्रवार एक घंटे का हिंदी कार्यक्रम रेडियो पर प्रस्तुत कर रहा है। अमेरिकी जनगणना के अनुसार सन 2000 से 2011 के बीच अमेरिका में हिंदी बोलने वाले 105% की दर से बढ़े हैं। हमें यह भी स्मरण रखना होगा कि विश्व के जितने भी विकसित राष्ट्र हैं उन सबने अपनी भाषा में विकास किया है। यह बात अमेरिका, रूस, जर्मनी, जापान, फ्रांस, ब्रिटेन, इटली, स्पेन, पुर्तगाल, इजरायल और चीन तक समान रूप से देखी जा सकती है। इजरायल जैसे छोटे से राष्ट्र ने हिब्रू में उत्कृष्ट तथा मौलिक शोधकार्य करके अबतक 12 नोबेल पुरस्कार प्राप्त किए हैं। ये सारे देश अपनी भाषाओं के विकास पर बड़ी धनराशि खर्च करते हैं।इसकी तुलना में भारत सरकार हिंदी एवं भारतीय भाषाओं पर बहुत कम धनराशि खर्च करती है। इन देशों की सरकारें ऐसी योजनाएं प्रस्तुत करतीं हैं कि उनकी भाषा और साहित्य के प्रति आकर्षण बढ़े और विश्व समुदाय की उन्मुखता उनकी ओर बनी रहे। हम भारत सरकार से भी यही अपेक्षा रखते हैं। यह तभी संभव है जब समूचा हिंदी जगत सरकार पर दबाव बनाए। हम भारत सरकार को इस बात के लिए तैयार करें कि वह विश्व के तमाम देशों में हिंदी और भारतीय भाषाओं की स्थिति का आकलन करने के लिए विद्वानों-विशेषज्ञों की एक समिति गठित करे जो हर दस साल की जनगणना के बाद हिंदी और भारतीय भाषाओं की वस्तुस्थिति का खाका तैयार करे। इसी के साथ भारत में परिचालन करने तथा अंधाधुंध कमाई करने वाली तमाम कंपनियों का यह कर्तव्य सुनिश्चित किया जाए कि वे अपनी सेवाएं हिंदी और भारतीय भाषाओं में दें। उनके विज्ञापन में हमारी भाषाओं को यथोचित सम्मान मिले। चूंकि लिपि भाषा का शरीर है अतः देवनागरी तथा दूसरी भारतीय लिपियों के प्रयोग को बढ़ावा देने की आवश्यकता है।
यह हर्ष का विषय है कि आज भारत विश्व की सबसे तीव्र गति से उभरने वाले अर्थ व्यवस्था है और अंतरराष्ट्रीय राजनीति में उसकी हैसियत लगातार बढ़ रही है।जब किसी राष्ट्र को विश्व बिरादरी अपेक्षाकृत ज्यादा महत्व और स्वीकृति देती है तथा उसके प्रति अपनी निर्भरता में इजाफा पाती है तो उस राष्ट्र की तमाम चीजें स्वतः महत्वपूर्ण हो जाती हैं।ऐसी स्थिति में भारत की विकासमान अंतरराष्ट्रीय हैसियत हिंदी के लिए वरदान-सदृश है। अब हिंदी राष्ट्रभाषा अथवा राजभाषा की गंगा से विश्वभाषा का गंगा सागर बनने की प्रक्रिया में है। आज विश्वस्तर पर उसकी स्वीकार्यता और व्याप्ति अनुभव की जा सकती है। आने वाला समय हिंद और हिंदी का है। इस समय हिंदी राजनीति, समाज-व्यवस्था, धर्म, दर्शन, संस्कृति, पर्यटन, मनोरंजन, मीडिया,खेल और रोजगार के क्षेत्र में सबसे प्रभावी भाषा बनकर उभरी है। हमें एकजुट होकर अंग्रेजी के खिलाफ खड़े होना चाहिए। हिंदी और भारतीय भाषाओंको हम शिक्षा का माध्यम बनवाकर अपनी भाषाओं के भविष्य को सदा-सर्वदा के लिए सुरक्षित कर सकते हैं। हमें अपनी सरकारों को इस बात के लिए तैयार करना होगा कि वे शिक्षा का माध्यम हिंदी और भारतीय भाषाओं को रखें और अंग्रेजी दूसरी विदेशी भाषाओं की तरह एक भाषा के रूप में सिखाई जाए। ऐसा करके ही हम आगामी चुनौतियों के लिए अपने युवाओं को सक्षम, समझदार तथा नवाचार के योग्य बना सकते हैं। तभी वे विश्वस्तरीय मौलिक शोधकार्य कर सकेंगे। यह दौर खुली एवं विश्वस्तरीय प्रतिस्पर्धा का है। इस युग का मंत्र है:-‘स्पर्धा में जो उत्तम ठहरे रह जावें ।’ हम अपने नौनिहालों को हिंदी तथा भारतीय भाषाओं में ही विश्वस्तरीय प्रतियोगिता के योग्य बना सकते हैं। यदि भारत को विश्व गुरु की अपनी स्वाभाविक छवि पुनः प्राप्त करनी है तो यह हिंदी और भारतीय भाषाओं द्वारा ही संभव है। हम विदेशी भाषा में विश्वगुरु नहीं बन सकते हैं। संक्षेप में, इतना तय है कि आने वाले समय में विश्व की बड़ी भाषाओं का भविष्य और वर्चस्व बढ़ेगा लेकिन जिन उपभाषाओं और बोलियों के बोलने वाले बहुत कम हैं उनके समक्ष अस्तित्व का संकट उपस्थित होगा। इन बोलियों को भी डिजिटलकरण द्वारा सुरक्षित किया जा सकता है। इस दिशा में विश्व समुदाय को और भी गंभीर होने की जरूरत है। मुझे पूर्ण विश्वास है कि हम नवीनतम तकनीक का सदुपयोग करके भारतीय भाषाओं के समक्ष आसन्न संकट का सफलतापूर्वक सामना कर सकेंगे। इसी दिशा में नयी राष्ट्रीय शिक्षा नीति के रूप एक बड़ा कदम उठाया गया है। इस दृष्टि से यह स्वाधीन भारत का सबसे बड़ा प्रयास है।हमारी वर्तमान सरकार इसी वर्ष से अभियांत्रिकी और चिकित्सा की पढ़ाई हिंदी में आरंभ करवाकर एक बड़े लक्ष्य की ओर कदम बढ़ा चुकी है।
लेखक : डॉक्टर करुणाशंकर उपाध्याय
(विदेश एवं रक्षा मामलों के विशेषज्ञ तथा मुंबई वि वि में विभागाध्यक्ष)