‘सावरकर को कितना जानते हैं हम’ श्रृंखला – लेख १
नजरबंद सुभाषचंद्र बोस को भारत से बाहर जाकर ब्रिटेन के शत्रु देशों से सैनिक सहयोग लेने की सलाह सावरकर ने ही दी थी। बोस का देश से पलायन और फिर आजाद हिंद फौज के सेनापति के रूप में सामने आना भी, ऐसा एक बड़ा कारण था, जिसने अंग्रेजों को भारत छोड़ने के लिए विवश किया था। नेताजी सुभाषचंद्र बोस आजाद हिंद फौज के सुप्रीम कमांडर थे। उनका दिया ‘जय हिंद’ का नारा पूरे विश्व में आज भी लगता है। नेताजी सशस्त्र क्रांति के जिस मार्ग का अनुसरण करते थे और जिसका बहुत सम्मान करते थे उनका नाम है स्वातंत्र्यवीर सावरकर। इन दोनों नेताओं के विचारों में स्वतंत्रता क्रांति को लेकर बहुत सारी एकरूपता थी।
भारत के दो महान क्रांतिकारी नेतृत्वों ने देश को स्वतंत्रता दिलाने के लिए सशस्त्र क्रांति को मार्ग स्वीकार किया था। नेताजी ने कहा ‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हे आजादी दूंगा’ तो स्वातंत्र्यवीर सावरकर का युवाओं के लिए मंत्र था कि, ‘हिंदू युवकों, तरुणियों के केशों में घूमनेवाली तुम्हारी उंगलियां जब बंदूक की ट्रिगर पर घूमने लगेंगी तभी और सिर्फ तभी हिंदुस्थान जगेगा’
अब बात उस दिन कि जब मुंबई में नेताजी सुभाषचंद्र बोस आए थे और उन्होंने स्वातंत्र्यवीर सावरकर से भेंट की। वैसे इन दोनों क्रांतिकारी नेताओं के मध्य कुल तीन भेंट हुई थीं। जिसमें से कि पहली भेंट किसी गुप्त स्थान पर हुई थी। लेकिन दूसरी भेंट 4 मार्च, 1938 को हुई। इस समय तक नेताजी सुभाषचंद्र बोस कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष बन गए थे। वे मुंबई में जब स्वातंत्र्यवीर से मिले तो उन्होंने स्वातंत्र्यवीर से कांग्रेस से जुड़ने का आग्रह किया। इस पर इन दोनों नेताओं की बृहद् चर्चा हुई।22 जून 1940 को दोनों क्रांतिकारी नेता फिर मुंबई में मिले। इसमें दोनों के मध्य जापान में रह रहे रासबिहारी बोस पर चर्चा हुई। स्वातंत्र्यवीर सावरकर ने इस भेंट में रासबिहारी बोस और उनके मध्य हुए गुप्त पत्र व्यवहारों के बारे में जानकारी दी।1943 में नेताजी सुभाषचंद्र बोस के नेतृत्व में लड़े जा रहे तीसरे स्वतंत्रता संग्राम में स्वातंत्र्यवीर सावरकर का यह ग्रंथ क्रांतिकारियों का मूल मंत्र बन गया। आजाद हिंद सेना की बटालियन, डिवीजन, प्रेरणा गीत सभी स्वातंत्र्यवीर सावरकर के ग्रंथ से प्रभावित थे।
इसे लेकर केएफ नरीमन ‘द हिंदुस्थान’ साप्ताहिक में अपने लेख ‘द सावरकर स्पेशल नंबर’ में लिखते हैं, “आजाद हिंद फौज का विचार और उसमें भी झांसी की राणी रेजिमेंट का उद्भव 1857 की क्रांति पर लिखे वीर सावरकर के ग्रंथ से हुआ प्रतीत होता है।”
ऐसे समर्थ राष्ट्रभक्त पर तथाकथित वामपंथी क्षमा-पत्र का सहारा लेकर उनके कद को बौना करने की कोशिशों में लगे रहते हैं, जबकि ज्यादातर वामपंथी स्वतंत्रता आंदोलन से ही दूर रहे थे। सावरकर ने वर्ष 1906 से 1910 तक ब्रिटेन में रहकर स्वतंत्रता के लिए जो अलख जगाया और वर्ष 1857 के स्वतंत्रता संग्राम पर जो किताब लिखी, उनके इस राष्ट्रीय योगदान के लिए ही उन्हें याद किया जाना चाहिए और आज इन कार्यो का पुनमरूल्यांकन करने की आवश्यकता है।
इसे देश और देश के नायकों का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि वर्ष 1947 में स्वतंत्र राष्ट्र के अस्तित्व में आने के बावजूद भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का इतिहास अंग्रेज शासकों की मानसिकता से लिखा गया। इतना ही नहीं, वामपंथी इतिहासकारों ने आक्रांताओं को महिमामंडित किया और भारत के मूल निवासी आर्यो को हमलावर बताया। इस दृष्टि से हमें विनायक दामोदर सावरकर पर न केवल तथ्यपरक दृष्टि अपनाने की आवश्यकता है, बल्कि समूचे भारतीय इतिहास के पुनर्लेखन की भी दरकार है, ताकि भारतीय राष्ट्रीय दृष्टिकोण को कायम किया जा सके।