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सरहुल संथाल वनवासियों का पर्व है और यह बिहार, झारखंड, ओडिशा, छत्तीसगढ़, अपर असम एवं बंगाल में भी बड़े धूमधाम से मनाया जाता है।सरहुल दो शब्दों से बना है- सर और हूल। सर का अर्थ सरई या सखुआ फूल और हूल यानी क्रांति। इस तरह सखुआ फूलों की क्रांति को सरहुल कहा गया. मुंडारी, संथाली और हो-भाषा में सरहुल को ‘बा’ या ‘बाहा पोरोब’, खड़िया में ‘जांकोर’, कुड़ुख में ‘खद्दी’ या ‘खेखेल बेंजा’, नागपुरी, पंचपरगनिया, खोरठा और कुड़माली भाषा में इस पर्व को ‘सरहुल’ कहा जाता है। सरहुल त्योहार प्रकृति को समर्पित है, इस त्योहार के दौरान प्रकृति की पूजा की जाती है।यह वनवासी समुदाय का सबसे बड़ा पर्व माना जाता है। इस त्योहार को मनाए जाने के बाद ही नई फसल का उपभोग किया जा सकता है।
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सरहुल चैत महीने के पांचवे दिन मनाया जाता है।इसकी तैयारी सप्ताह भर पहले ही शुरू हो जाती है। हंडिया बनाने के लिए प्रत्येक परिवार से चावल जमा किए जाते हैं. पर्व की पूर्व संध्या से पर्व के अंत तक पहान उपवास करता है। एक सप्ताह पूर्वसूचना के अनुसार पूर्व संध्या गाँव की ‘डाड़ी’ साफ की जाती है. उसमें ताजा डालियाँ डाल दी जाती हैं जिससे पक्षियाँ और जानवर भी वहाँ से जल न पी सकें।पर्व के प्रात: मुर्गा बांगने के पहले ही पूजार दो नये घड़ों में ‘डाड़ी’ का विशुद्ध जल भर कर चुपचाप सबकी नजरों से बचाकर गाँव की रक्षक आत्मा, सरना बुढ़िया, के चरणों में रखता है। उस सुबह गाँव के नवयुवक चूजे पकड़ने जाते हैं। चेंगनों के रंग आत्माओं के अनुसार अलग-अलग होते है। किसी–किसी गाँव में पहान और पूजार ही पूजा के इन चूजों को जमा करने के लिए प्रत्येक परिवार जाते हैं।
दोपहर के समय पहान और पूजार गाँव की डाड़ी झरिया अथवा निकट के नदी में स्नान करते हैं। किसी– किसी गाँव में पहान और उसकी पत्नी को एक साथ बैठाया जाता है। गाँव का मुखिया अथवा सरपंच उनपर सिंदुर लगाता है। उसके बाद उन पर कई घड़ों डाला जाता है। उस समय सब लोग “ बरसों,बरसों” कहकर चिल्लाते हैं। यह धरती और आकाश की बीच शादी का प्रतीक है।उसके बाद गाँव से सरना (सार्वजनिक पूजा मैदान ) तक जूलूस निकाला जाता है। सरना पहूंचकर पूजा-स्थल की सफाई की जाती है.पूजार चेंगनों के पैर धोकर उन पर सिंदुर लगाता है और पहान को देता है। पहान सरना बुढ़िया के प्रतीक पत्थर के सामने बैठकर चेंगनो को डेन के ढेर से चुगाता है। उस समय गाँव के बुजुर्ग वर्ग अन्न के दाने उन पर फेंकते हुए आत्माओं के लिए प्रार्थनाएँ करते हैं कि वे गाँव की उचित रखवाली करें। उसके बाद पहान चेंगनों का सिर काट कर कुछ खून चावल के ढेर पर और कुछ सूप पर चुलता है. बाद में उन चेंगनो को पकाया जाता है. सिर को सिर्फ पहान खा सकता है. कलेजे यकृत आदि आत्माओं में नाम पर चढ़ाये जाते हैं. बाकी मांस चावल के साथ पकाकर उपस्थित सब लोगों के बीच प्रसाद के रूप में बाँटा जाता है.