Opinion

गुरु तेग बहादुर हिंद की चादर

जैसा कि  आपको विदित ही है कि गुरु तेग बहादुर जी का ४०० वां प्रकाश पर्व समापन की तरफ बढ़ रहा है १९ अप्रैल २०२२ के दिन गुरु तेग बहादुर जी के ४०० वे प्रकाश पर्व के समापन की तिथि है.  आपको  सिख धर्म का नवां  गुरु कहा जाता है हरगोविंद जी के घर माता नानकी जीके कोख से बच्चे का जन्म हुआ और पिता हरगोविंद जी ने बच्चे को देखकर प्रणाम किया और कहा कि यह भी मेरे पिता गुरु अर्जन देव जी की तरह त्यागी होगा और उनका नाम त्याग मल रखा।

तेग बहादुर जी का बचपन का नाम त्याग मल था उन्होंने १४ वर्ष की आयु में जब उनके पिता गुरु हरगोबिंद जी को करतारपुर मे शाहजहां की  १०००००  सेनाओं ने घेर लिया था उस समय त्याग मल जी ने  पिता से युद्ध में कूदने की आज्ञा मांगी तो पिता ने विजयी भव का आशीर्वाद देकर आज्ञा दे दी और लड़ाई के मैदान में कूद पड़े और इतनी बहादुरी से लड़े के दुश्मनों को मार गिराया और यह चौथी लड़ाई गुरु हरगोबिंद जी ने अपने सभी साथियों और  अपने बेटे के साथ जीत ली इसके पश्चात ही इनकी माता माता नानकी और पिता ने इनका नाम त्याग मलसे तेग बहादुर कर दिया।

जब गुरियाई की गद्दी पर बैठे तो धर्म प्रचार की यात्रा पर निकल पटना पहुंचे। अपनी धर्मपत्नी को पटना में ही छोड़ा और आसाम और ढाका की तरफ धर्म प्रचार के लिए निकल पड़े।  जब आसाम और ढाका के धर्म प्रचार कर रहे थे तो उनको खबर पता लगी की औरंगजेब ने एलान कर दिया है था इस देश में केवल एक ही धर्म रहेगा और वह भी मुस्लिम धर्म। यह संकट भारत के सारे समाज के ऊपर आया था। कई ने तो उस समय कृपाण के डर से लालचवश धर्म परिवर्तित कर लिया था वह भी सब भारतीय ही थे तेग बहादुर जी तब आसाम और ढाका की  प्रचार यात्रा पर थे.तभी गुरु तेग बहादुर जी के मन में पीड़ा उठ गई थी और वह वहीं से वापस चल दिए थे अपने बेटे को उसके जन्म के  ४ वर्ष पश्चात आकर मिले थे.

तेग बहादुर जी को अज्ञातवास

 तेग बहादुर जी के पिता गुरु हरगोविंदजी  ३  मार्च १६४४ को ज्योति ज्योत समा जाते हैं अपनी ज्योति  ज्योत समाने से पहले गुरु हरगोविंदजी अपने बड़े बेटे बाबा गुर दित्ता र्जी के छोटे लड़के हर राय जी को गुरु पदवी दे दी।   गुरुजी की घोषणा से उनकी पत्नी नानकी जी को आघात लगा उन्होंने पति से पूछा कि वे अपने पुत्र तेग बहादुर जी को गद्दी न सौंप कर अपने पौत्र हरराय को क्यों अनुग्रह कर रहे हैं जबकि तेग बहादुर वीर, सौम्य ,सेवाभावी और अकाल पुरख के परम भक्त हैं। गुरु जी ने उत्तर दिया तेग बहादुर गुरुओं के गुरु है तेग बहादुर के अतिरिक्त और कोई ऐसा नहीं है जिसमें असहनीय को झेलने की क्षमता और योग्यता है और तेज बहादुर के पास दिव्य ज्ञान है और ऐषणाओं को त्यागने का अपूर्व समर्थ है। समय आने पर गुरूपद लौटकर उन्हीं को प्राप्त होगा

अपनी मृत्यु से पहले गुरुजी ने अपनी पत्नी नानकी जी को आदेश दिया कि वह तेग बहादुर को साथ लेकर बकाला गांव जाकर रहे इस आदेश के अनुसार जब गुरु जी का अंतिम क्रिया संपन्न हो गई तेग बहादुर जी अपनी मां और पत्नी को साथ लेकर बकाला के लिए प्रस्थान कर गए। तेग बहादुर जो गुरु पद के सबसे प्रमुख दावेदार हो सकते थे इतनी सहजता से पिता की आज्ञा सर आंखों पर रखा और एक आज्ञाकारी पुत्र की तरह आचरण किया वह एक तरह से महाराजा दशरथ और  श्री राम के पिता पुत्र संबंधों की पुनरावृति थी। जैसी निसप्रहता किसी महान योगी में हो सकती थी श्री हरगोविंद जी ने ठीक ही कहा था कि इतनी सहजता से गुरु तेग बहादुर अलौकिक एषणाओं का त्याग कर सकता है वह किसी के द्वारा संभव नहीं है

 भगवान श्री राम ने १४ वर्ष का वनवास झेला  था और महान पांडव भाइयों ने १३ वर्ष तक राज्य से दूर रहना पड़ा था उसी प्रकार तेग बहादुर जी भी बकाला में लगभग २० वर्षों तक अज्ञातवास में रहे। हरकिशन जी ३० मार्च १६६४ को ज्योति ज्योत समा जाते हैं और और अंतिम समय कह जाते हैं” बाबा बसे ग्राम  बकाले “यानी अगला गुरु बाबा बकाला साहिब में है। यह जानकर बहुत से लोगों ने बकाला में अपनी गदीयां लगा ली। गुरु घर का एक अनन्य सिख मखन शाह लुबाना जो गुरु घर का बहुत प्रेमी था उसका बहुत बड़ा बिजनेस था और समुद्री जहाज चलते थे और देश विदेश का कार्य करता था उसका जहाज  समुद्री तूफान की चपेट में आ गया और पानी में बहुत तेजी से तिनके की तरह उछलने लगा तो ऐसा लगा के जहाज का बचना ना मुमकिन है उसने अपने गुरु को हृदय से याद किया जपजी साहब का पाठ किया और जहाज को समुंदर  किनारे लगाने की विनती की और दसवंद की राशि देने के लिए भी अपनी प्रार्थना की ।

जहाज समुंदर के किनारे लग गया उसके पश्चात मखन शाह लुबाना गुरु जी को ढूंढने के लिए दिल्ली आया परंतु उसको पता लगा कि  गुरु जी ज्योति ज्योत समा गए हैं और अगले गुरु के लिए बाबा बकाला के लिए कह गए हैं यह सोचकर मक्खन शाह लुबाना बाबा बकाला के लिए चल दिया जब वहां पहुंचा तो देखा कि वहां तो २२ मंजीया लगी हुई है और हर एक कोई अपने को गुरु कहलाता है ऐसे में सच्चे गुरु को ढूंढने के लिए मखन शाह लुबाना ने सबके सामने दो दो मोहरे रखनी शुरू कर दी ताकि सच्चा गुरु ढूंढ लू परंतु जब उसको कोई भी ऐसा गुरु ना मिला तो उन्होंने पूछा कि मैं यहां कोई और भी है तो लोगों ने बताया यहां एक और व्यक्ति है जो प्रार्थना उपासना में लीन रहता है और लोगों से बहुत कम मिलता जुलता है तो मखन शाह लुबाना को अब पता मिल गया तेग बहादुर जी का ।वह वहां पहुंचा और गुरु के आगे २ मोहरे रखी तब तेग बहादुर जी ने अपनी कमर से चद्दर हटाई और मखन शाह लुबाना को दिखाई के भाई जब तुम्हारा जहाज समुंदर में डूब रहा था तो उसके बचाने के लिए हमने यह कमर अपनी लगा दी थी और इस पर अभी भी निशान है और तुम गुरु घर की भेंट दसवंद के रूप में तय की थी।

वह तुम छुपा रहे हो तब मखन शाह लुबाना ने दसवंद की बेटा भेंट गुरु के आगे रख दो और उन्होंने सच्चा गुरु ढूंढ लिया और वह उस भौरे की जिस भोरे में गुरु तेग बहादुर बैठे थे उसकी छत पर चढ़ गए और जोर-जोर से कहने लगे गुरु लादो रे गुरु लादो रे इस तरीके से गुरु तेग बहादुर जी गुरु गद्दी की प्राप्ति हुई और छठे गुरु गुरु हरगोबिंद जी द्वारा कही हुई बात की पुष्टि हुई के गुरु गद्दी गुरु तेग बहादुर जी को ही मिलनी है माताजी भी प्रसन्न चित्त हुई

यहां मैं आपको यह बताना चाहता हूं कि औरंगजेब 1658 में 31 जुलाई को देश का राजा बना उसके  बाद सातवे गुरु हर राय जी 1661 ,6 अक्टूबर को ज्योति ज्योत समा जाते हैं और वह अपने 5 साल के बेटे गुरु हरकिशन जी को गुरु गद्दी दे जाते हैं जो दिल्ली में चेचक की बीमारी फैलती है उस समय लोगों की सेवा करते समय  चेचक की  बीमारी से ग्रस्त हुए और 30 मार्च 1664 को ज्योति ज्योत समा गए

अमृतसर यात्रा

गुरु तेग बहादुर जी गुर्गद्दी प्राप्त करने के पश्चात अपने भक्तों व मक्खन शाह लुबाना के साथ अमृतसर की यात्रा पर निकल पड़े उनकी हार्दिक इच्छा अपने पूर्वजों के द्वारा बनवाए गए स्वर्ण मंदिर हरिमंदिर साहिब के दर्शन करने की थी 1664 नवंबर के महीने में जब गुरुजी सरोवर में स्नान करने के पश्चात हरिमंदिर साहब माथा टेकने गए तो वहां के पुजारियों ने सामने के दरवाजे कर दिए दरअसल पुजारियों और मसंदो को  डर था कि गुरुजी हरमंदिर साहिब पर कब्जा ना जमाले है इस तरह उनकी आय का जरिया बंद ना हो जाए हरिमंदिर साहिब गुरु तेग बहादुर जी के दादा गुरु अर्जन देव जी ने बनवाया था परंतु इतिहास के क्रम काल में कुछ ऐसा चक्कर चला के छठे , सातवें और आठवें गुरु पंजाब के क्षेत्र से निरंतर उपस्थित रहे इसका लाभ स्वार्थी और लोभी में संतों ने उठाया उन्होंने अपनी स्वामी भक्ति गुरु रामदास जी के पुत्र पृथ्वी चंद और उसके वंशजों के प्रति घोषित कर दी थी पृथ्वी चंद ने अपने बेटे मेहरबान को सातवां गुरु घोषित किया था और उसके बाद उसके बेटे हरजी को आठवा गुरु ताकि उनका अपना स्वार्थ सच सध सके मखन शाह लुबाना ने पुजारियों की हरकत के प्रति गुरुजी के सामने अपना रोष प्रकट किया और उनके प्रति बल प्रयोग की अनुमति मांगी किंतु गुरु जी ने ऐसा कुछ भी करने की अनुमति नहीं दी और शांत भाव से बाहर से ही सर झुका कर प्रणाम किया और उसकी चारदीवारी से आगे निकल कर एक छायादार वृक्ष के नीचे अकाल तख्त के समीप एक स्थल पर विश्राम किया अब गुरुद्वारा थड़ा साहिब कहलाता है।

आनंदपुर की  स्थापना और धार्मिक यात्राएं

गुरु तेग बहादुर जी ने अमृतसर के दर्शन करने के पश्चात सबसे पहले आनंदपुर की स्थापना की राजा दीपचंद गुरु जी के पिता गुरु हरगोबिंद जी के मित्र और परम भक्त थे।  पूर्ववर्ती सभी गुरुओं के प्रति उनके मन में अपार श्रद्धा थी उनके निधन के बाद उनकी विधवा रानी चंपा देवी के दिवंगत पति के अंतिम रसम के संपन्न होने के अवसर पर शामिल होने के लिए गुरु तेग बहादुर जी को निमंत्रण भेजा। गुरुजी ने निमंत्रण स्वीकार कर लिया और अनुष्ठान संपन्न होने पर रानी ने अपने स्वर्गवासी पिता की आत्मा की शांति के लिए गुरुजी की मंगल कामना हेतु अपनी रियासत का कुछ भूखंड भेंट करना चाहा किंतु गुरु जी ने बिना मुआवजा दिए जमीन लेने को तैयार नहीं थे। आखिर ₹५०० की अदायगी अदायगी पर भूखंड  लेने को तैयार हो गए। यह स्थान किरतपुर से कुछ दूर मकोवाल में था उसी स्थान पर जून १६६५ में गुरु जी ने एक नये नगर की नींव रखी जिसे अपनी मां के नाम पर चक नानकी नाम दिया यही आगे चलकर आनंदपुर साहिब विख्यात हुआ यहीं पर गुरु गोविंद सिंह जी ने सन १६९९ ईस्वी में  निराले खालसा का निर्माण किया  था ।

प्रसिद्ध इतिहासकार कनिंघम ने अपने प्रख्यात ग्रंथ में “सिखों का इतिहास “में लिखा है गुरु तेग बहादर जी ने  मुगल काल के शासकों की संप्रदायिकता एवं  क्षमा ना करने की नीति का अनुभव कर लिया था। इसी नीति के कारण सिख धर्म के प्रचार के लिए किसी सुरक्षित स्थान को केंद्र बनाया जाना चाहिए जिससे सिख धर्म आगे बढ़ सके गुरु तेग बहादुर जी सच्चे पातशाह के नाम से प्रसिद्ध हुए इन के दरबार में दरगाह मल के पुत्र मती दास दीवान के पद पर सुशोभित थे भाई दयाल दास जो पारंवारिक कार्यो के लिए मंत्री पद दिया गया और भाई सती दास गुरु दरबार के में लेखा के लेखाकार के रूप से कार्य करते थे आगे चलकर गुरु तेग बहादुर जी ने यहां पर कुछ विशेष व्यक्तियों को छोड़ा जो इस निर्माण का काम देख रहे थे।

अपने परिवार को साथ में लेकर पंजाब और हरियाणा की यात्राएं की पानी की कमी पूरा करने के लिए बावलिया बनवा़यी, कुआं खुदवाये उसके पश्चात दिल्ली फिर मथुरा पहुंचे। प्रसिद्ध तीर्थ स्थान मथुरा पहुंचकर कृष्ण की लीला भूमि में प्रवेश करते समय उनका मन अत्यंत प्रसन्न था  नगर में साधु संतों का  काफी आवागमन था उन दिनों कड़ाके की ठंड पड़ रही थी इसलिए ज्यादातर लोग घरों के बाहर ही धूप का आनंद लेते नजर आ रहे थे। इसके पश्चात गुरु तेग बहादुर जी वृंदावन के लिए रवाना हुए वृंदावन पहुंच कर उनको बहुत ही अच्छा लगा वहां के लोग बहुत अच्छे लगे उनकी निर्मल भक्ति बहुत अच्छी लगी किंतु कर्मकांड का जो रूप उन्होंने वहां देखा और पडों का जो लालच देखा उससे उनका मन परेशान हो गया । वृंदावन में गुरु तेग बहादुर जी के दर्शन के और उनके उपदेश सुनने के लिए बड़ी संख्या में लोग आए उनमें  गृहस्थी भी थे और पुजारी भी उनमें पंडित भी थे और जजमान भी उनमें साधु भी थे और जोगी भी कृष्ण जी की उस पवित्र नगरी में जब गुरु जी की वाणी का उच्चारण हुआ तो मानो अमृत वर्षा होने लगी। ऐसा लगा वृंदावन की मानो सदियों की से प्यासी आत्मा आज तृप्त हो गई।

 वृंदावन से निकलकर गुरु तेग बहादुर जी आगरा मैं बने माय थान गुरुद्वारे मैं जाकर रुके कीर्तन हुआ संगते निहाल हुई उसके पश्चात इटावा, कानपुर फतेहपुर आदि नगरों में प्रचार करते हुए १६६६ जनवरी में प्रयाग पहुंचे।। प्रयागराज में उस समय प्रसिद्ध माघ मेला चल रहा था और संक्रांति स्नान के लिए देश भर से तीर्थयात्री त्रिवेणी संगम पर उपस्थित थे त्रिवेणी संगम पर गुरु सहायक अहियापुर नामक स्थान में ठहरे स्थान पर गुरु नानक देव जी भी पधार चुके थे जिनकी पवित्र स्मृतियां प्रयाग वासी पीढ़ी दर पीढ़ी अपने दिलों में सजोय हुए थे गुरु साहब ने इसी स्थान पर कुछ दिन ध्यान साधना में व्यतीत किया रोज कीर्तन दरबार सजता , संगते जुड़ती और श्रद्धालु जन गुरु जी के दिव्य वचनामृत से कृतार्थ होते।

प्रयागराज में गुरु साहिब में गुरुद्वारा पक्की संगत की व्यवस्था की प्रयाग के यह पवित्र स्थान आज भी महत्वपूर्ण और पूज्य हैं। इसी पवित्र नगरी में माता गुजरी ने गर्भधारण किया था और देश को सर्वकालीन महान योद्धा के रूप में गोविंद सिंह रूपी वरदान दिया था इसका जिक्र गुरु गोविंद सिंह जी ने स्वयं बचित्र नाटक  के सातवे अध्याय में किया है। जब ही जात त्रिवेणी भये । पुण्य दान करत दिन बिताए।। तहि प्रकाश हमारा भयो। पटना शहर विखे  भंव लेयो ।।

धर्म प्रचार और धार्मिक यात्राएं

प्रयाग से निकलकर गुरु तेग बहादुर जी बनारस पहुंचे रास्ते में गांव और शहरों में बसे लोगों से गहन बातचीत की और उन्हें ईश्वर की आराधना करते हुए कर्मठ जीवन जीने का आदेश संदेश दिया और श्र श्रोताओं की बड़ी संख्या में साधु भी होते थे जो उनकी शिशु- सुलभ सरलता और परमात्मा के प्रति गहरी निष्ठा देखकर चकित रह जाते थे  अनेक  गृहस्थ और साधु तो उन्हें अगली बस्ती तक पहुंचाने के लिए साथ में भी हो लेते थे। बनारस में भाई   कल्याणा जी के नेतृत्व में संगत ने उनका भव्य स्वागत किया गुरु साहब जब प्रयाग में थे तभी पर भाई कल्याणा जी ने ह्रदय से उनका स्मरण किया था और दर्शन की कामना की थी भाई कल्याणा जी अतिशय वृद्ध थे और  प्रयाग नहीं जा सकते थे इसलिए गुरू तेग बहादुर जी ने उनके निवास पर जाकर  दर्शन दिए वह स्थान  अब गुरुद्वारा नीचीबाग के नाम से प्रसिद्ध है भाई कल्याण के मकान के अंदर एक गर्भ ग्रह था जहां गुरु जी ने बैठकर  कुछ दिन तपस्या भी की थी।

वहां की एक घटना का जिक्र करना आवश्यक है तेग बहादुर जी प्रतिदिन सवा पहर रात रहते ही स्नान कर के भजन सिमरन में लीन हो जाते थे एक दिन अमृत वेला में जब वे नहाने की तैयारी कर रहे थे तब  भाई कल्याणा जी ने हाथ जोड़कर उनसे निवेदन किया कि क्योंकि आज ग्रहण है और लाखों लोग आज गंगा स्नान करेंगे इसलिए अच्छा होगा कि यदि गुरु साहब भी गंगा स्नान कर ले परंतु भाई कल्याणा इतने बुजुर्ग थे कि वह गंगा तक नहीं जा सकते थे तो गुरु तेग बहादुर जी ने उनका मर्म जाना और उन्होंने कहा कि आपके आंगन में एक सिल पड़ी हुई है उसे हटा कर अगर आप थोड़ी सी खुदाई करेंगे तो आपको यही जल मिल जाएगा गंगाजल निर्मल जल पहुंच  जाएगा और आप स्नान कर लेंगे यही हुआ आदेश हुआ शिलाखंड हटाया गया और खुदाई की गई तो पानी आ गया सब ने स्नान किया आज भी वह बाओली साहिब के रूप में वहां मौजूद है।

तेग बहादुर जी ने बनारस में लोगों को आडंबरो का परित्याग करते हुए प्रभु नाम के सीधे साधे मार्ग पर चलने का उपदेश दिया उन्हें व्रत और तीरथ  की व्यर्थता की ओर लोगों का ध्यान खींचा और समझाया कि प्रभु का नाम लेते रहने से मन शुद्ध हो जाता है जब हम शुद्ध मन से ईश्वर का स्मरण करते हैं तब है हमें अपनी शरण में लेते हैं  गुरु तेग बहादुर जी ने वहां पर जो शब्द उच्चारण किया वह निम्नलिखित है -: जा मै भजन राम को नाही ।। तिह नर जनमु अकारथ खोइआ  यह राखहु मन माही ।।तीरथ करें व्रत फुनि राखें नह मनुवा बसि जा को। । निहफल  -धर्म ताहि तुम मानो साचु कहत मै या कउ।। जैसे पाहनि जल महि रखिअो भेदै नाहि तिहि पानी। । तैसे ही तुम ताहि पछानो भगतिहीन जो प्रानी।।

बनारस से निकलकर गुरु तेग बहादुर जी कर्मनाशा नदी की मुक्ति करते हुए बिहार में चले गए बिहार में सासाराम में गुरु साहब का इंतजार हो रहा था क्योंकि उनके सेवक भाई फग्गू की श्रद्धा निराली थी वे धार्मिक प्रवृत्ति के एक बुजुर्ग सज्जन थे उन्हें काफी पहले ही आभास हो गया था एक गुरु जी वहां पर आएंगे जैसे ही गुरुजी का हुकमनामा पहुंचा सासाराम के निवासियों में हर्ष की लहर दौड़ गई। भाई फग्गू ने एक सुंदर भवन का निर्माण कराया था जिसमें एक भव्य डयोड़ी और बहुत बड़ा प्रवेश द्वार था भाई फग्गू तय कर लिया था कि जब तक गुरु साहिब के चरण यहां नहीं पड़ते तब तक वह भवन में निवास के लिए प्रवेश नहीं करेंगे वे प्रतिदिन भवन की सफाई करवाते और धूप अगरबत्ती जला कर उसे सुगंधित रखते।

इधर नगर वासियों ने गुरु साहिब के स्वागत की होड़ लगी हुई थी नगर के धनाढ्य साथियों ने नगर के पश्चिमी फाटक से लेकर उनके ठहरने के जगह तक मखमली कालीन बिछा दिया किंतु स्वागत के लिए स्वयं न जाकर अपने दो कार्यकर्ता भैया सिंह और टेक मनी सिंह को भेज दिया यह  दोनों सज्जन पिता-पुत्र थे गुरु चरणों में माथा निवाने का सौभाग्य इन्हें ही प्राप्त हुआ परंतु गुरु जी ने प्रवेश के लिए कालीन का रास्ता नहीं चुना और खेतों के रास्ते से शिष्यों और अनुयायियों के साथ सीधे उधर बढ़ चले जहां निश्चल हृदय वाले फग्गू का आवास था।  गुरु जी के दर्शन होते ही फग्गू हृदय निहाल हो गया आंखें भर आई कंठ से तत्काल बोल ना फूटे भक्त की ऐसी दशा देखकर गुरु जी ने उन्हें गले से लगा लिया। गुरुजी लगभग २१ दिन तक सासाराम निवास चाचा फग्गू का भवन संगत गुरुद्वारा में परिवर्तित हो चुका था आज भी चाचा  फग्गू की संगत के नाम से जाना जाता है जहां उनके चप्पलों की जोड़ी और लकड़ी के  दानों की माला और शिलाखंड जिस पर बैठकर स्नान करते थे के रूप में सुरक्षित है।

सासाराम से चलकर गुरु तेग बहादुर जी फल्गु नदी के तट पर उन्होंने डेरा लगाया जहां देश से हिंदू समाज के लोग अपने पितरों की आत्मा की शांति के लिए  पहुंचते थे और पिंडदान द्वारा उनकी मुक्ति की कामना करते थे यह परंपरा आज भी यथावत जारी है परंतु गुरु जी ने समझाया के जीते जी अपने पितरों की सेवा करिए और भक्ति में जुड़िए जो आज के दिन भी जरूरी है।इसके पश्चात गुरु जी नालंदा गए कभी यहां का विश्वविद्यालय दुनियाभर में प्रसिद्ध था गौतम बुध के चरणों से पुवित्र हुई भूमि गुरु जी के  चरण पडने से एक बार फिर धन्य हो उठी ।परंतु औरंगजेब ने इस विश्व विद्यालय को भी अग्नि अर्पित कर दिया और ६ महीने तक इसकी आग जलती रही।

पटना  प्रवास

गुरु तेग बहादुर जी बरसात से पहले पटना पहुंच जाना चाहते थे। उनकी इच्छा जानकर टोली पटना के लिए रवाना हो गई पटना में गुरु नानक देव जी के शिष्यों की संख्या हजारों में थी गुरु नानक देव जी पटना में आ चुके थे।  गुरु तेग बहादुर जी के पटना प्रवेश के काफी पहले ही उनकी कीर्ति यहां पहुंच चुकी थी पटना में  गुरु नानक देव जी के अनुयाई उदासी संप्रदाय के सदस्य विभिन्न पंथ के स्त्री पुरुषों ने उनका स्वागत किया और दर्शन भेट अर्पित की।  पटना में गुरुजी तो तीन स्थानों में रहे क्योंकि वह जहां भी रहते वहां संगत के लिए छोटा पड़ने लगता। गुरु तेग बहादुर जी पूरा बरसात का मौसम पटना में ही रहे रोज कीर्तन होता संगते जुड़ती और गुरु नानक देव जी के धर्म में आस्था और श्रद्धा रखने वाले लोग विभिन्न साधनों से पटना पहुंचने लगे। गुरु जी के प्रति उनके प्रेम को देख कर मुड़ तेग बहादुर जी का मन पुलकित हो उठा वह सभी अपने गुरुजी को अपने-अपने क्षेत्रों में आमंत्रित करने आए थे। जब विभिन्न स्थानों से आए लोग गुरु जी से प्रार्थना करने लगे उनके क्षेत्रों में  पधारने का कष्ट करें और अपने दर्शन और उपदेशों से लोगों का जीवन धन्य करें तो गुरु जी ने सहाजता से उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली।

माता गुजरी की कोख उन दिनों आशा रंजीत थी इस हालात में उनकी यात्रा उचित नहीं थी। गुरुजी ने भाई दयालदास को पटना  का सुबा नियुक्त किया और माता नानकी जी से निवेदन किया कि वे पटना में ही ठहर कर अपने पुत्र वधू की देखभाल करें। गुरु जी ने बीवी बाई नामक एक सेविका को उनकी सेवा में नियत कर दिया। पटना की संगत ने उन्हें विश्वास दिलाया कि उनके पीछे उनके परिवार के सब सर आंखों पर रखेंगे यह निश्चय मन से अपनी यात्रा यात्रा जारी रख सकते है.

छत्रपति शिवाजी का आगरा की जेल से फरार होना

पटना में रहते हुए गुरुजी दिल्ली की राजनीतिक खबरों से बाखबर रहे शाहजहां की मृत्यु होने की खबर पटना में ही मिली। उन्हें यह भी खबर मिली की छत्रपति शिवाजी आगरा की जेल से  भाग चुके हैं और औरंगजेब राजाराम सिंह  सख्त खफा है क्योंकि जेल का सारा कार्यभार राजा राम सिंह पर था इसलिए उन्हें राजा राम सिंह के बारे में चिंता हुई।  राम सिंह और उनके पूर्वज गुरू जी के भक्त थे क्योंकि गुरु हरगोविंदजी के समय जिन ५२ राजाओं को छुड़वाया था उनमें से राजा राम सिंह जी के परिवार के राजे भी थे। गुरु तेग बहादुर जी अक्टूबर १६६६ में अपने कुछ मुख्य शिष्यों और फकीरों को साथ  लेकर गुरु जी पटना से प्रस्थान कर गए पटना से ढाका तथा कामरूप की यात्रा के दौरान दिवान मत्ती दास भाई सती दास तथा भाई गुर्दत्ता जी गुरु जी साहब को हर प्रकार का सहयोग दिया तथा सेवा की। इन स जनों पर गुरु जी की विशेष कृपा थी भाई मती दास फारसी के विद्वान थे वह गुरु जी के अनन्य भक्त थे गुरु साहेब के प्रवचन और आदेशों को फारसी भाषा में अनूदित करने के लिए उन्होंने अपनी सेवाएं अर्पित की थी और साथ-साथ यात्रा भी की थी.

ढाका में धर्म प्रचार

गुरु तेग बहादुर जी का मुख्य उद्देश्य था कि वह जहां जहां गुरु नानक देव जी ने धर्म यात्राएं की थी उस स्थान पर जरूर जाएं इसलिए वे बंगाल और आसाम के उन सभी स्थानों की यात्रा करें जहा गुरू नानक देव जीने धर्म यात्राएं की थी। बंगाल और कामरूप क्षेत्र से होकर और गुरु गुरु जी अगरतला से दौलतगंज सीताकुंड होते हुए चिटगाग पहुंचे इन सभी स्थानों पर गुरु नानक देव जी के चरण पढ़ चुके थे। सिलहट में गुरुदेव जी की स्मृति में एक बार मंदिर बना था गुरुजी ने उनके दर्शन किए यही गुरु जी ने राजा राम राय जिनके साथ ढाका में उनसे भेंट हुई थी  लौट जाने के लिए आदेश किया।

त्रिपुरा की राजधानी अगरतला पहुंचने पर वहां के निवासियों ने गुरु जी का जोरदार स्वागत किया।  गुरुजी अगरतला लकसाम दौलतगंज सीताकुंड होते हुए चिटगांग पहुंचे और चिटगांव से नोआखली चांदपुर नारायण होते हुए तथा प्रत्येक स्थान पर संगत का निर्माण करते हुए तेग बहादुर जी ढाका पहुंच गए

तेग बहादुर जी जब पूर्वोत्तर की यात्रा से ढाका लौटे तो उन्होंने अनुभव किया कि अचानक राजनैतिक  हलचल बढ़ गई हैं। वैसे तो देश के अधिकतर सुबो की तरह आसाम भी दिल्ली साम्राज्य के अंतर्गत था  किंतु आसाम की अहोम जाति समय-समय पर दिल्ली सल्तनत को चुनौती देती रहती थी.उन्हें राजा चक्रधवज सिंह का योग्य नेतृत्व प्राप्त था उसका राज्य कामरूप क्षेत्र में फैला हुआ था जनता का समर्थन मिलने पर उसने गुवाहाटी पर आक्रमण कर दिया था और मुगलों की फौज को करारी शिकस्त देते हुए  गुवाहाटी पर कब्जा कर लिया था।

 साम्राज्यवादी औरंगजेब के लिए असहनीय झटका था उन दिनों बंगाल का सूबेदार शाइस्ता खान था औरंगजेब को पता था कि चक्र ध्वज सिंह से लोहा लेना सूबेदार  शाइस्ता  के बूते से बाहर है। औरंगजेब किसी भी कीमत पर गुवाहाटी फिर से प्राप्त करन चाहता था उसने राजाराम सिह को भेजने का निश्चय किया राजाराम सिंह को आसाम भेजने के पीछे वास्तव में औरंगजेब की कूटनीतिक चाल थी। राजाराम सिह जी की देखरेख में छत्रपति शिवाजी को आगरा किले में कैद रखा गया था शिवजी के फरार हो जाने से औरंगजेब राम सिंह के प्रति बेहद खफा था और मन में विश्वास करने लगा था कि हिंदू होने के कारण राजा राम सिंह ने छत्रपति शिवाजी को फरार होने में मदद की है।  वह यदि युद्ध में मारा जाता है तो हिंदुओं को नाराज किये बगैर एक गद्दार से छुटकारा मिल जाएगा यदि उसकी विजय हो जाती है तो दिल्ली साम्राज्य  का विस्तार हो जाएगा।

राजा राम सिंह  फौज के साथ ढाका पहुंच गया शाइस्ता खा ने उसका स्वागत किया परंतु मिर्जा राम सिंह की चिंता बढ़ा दी। उसने अगले ही दिन कुछ आदमी मालदा के लिए रवाना कर दिए बंगाल का मालदा शहर पांच पीरों के लिए विख्यात था। कुछ ही दिनों में राजाराम सिंह के आदमी पांच प्रमुख मुस्लिम पीरों के को साथ लेकर ढाका पहुंच गए शाइस्ता खां समझ गए कि राजा रामसिंह काला जादू के असर से बचने के लिए पीरों को साथ रख रहे हैं। शाइस्ता खां भी हार्दिक हार्दिक इच्छा थी इस बार राजा चक्रवध  सिंह को हराया जाए।  पिछले युद्ध में मुगल  सिपहसलार  मीर जुमला मारा गया था.शाइस्ता खान का यकीन था कि मीर जुमला की मौत काला जादू से हुई थी काफी सोच विचार कर शाइस्ता खाने राम सिंह से कहा राजा साहब पांच पीरों पर मुसलमान सैनिक तो भरोसा कर लेंगे लेकिन हिंदू सैनिकों को डर बना रहेगा।

  उन दिनों ढाका में पंजाब से आया एक ऐसा संत रह रहा था जिस पर सभी जाति और धर्म के लोग पूरा यकीन रखते थे।  गुरुओं का गुरु और पीरों का पीर है मेरी  गुजारिश है आप एक बार उनसे मुलाकात कर ले अल्लाह ने चाहा तो आपकी मदद करेंगे।  राम सिंह के चिंतातुर निराश मन में आशा की एक किरण जगी थी वह फौरन गुरु जी से भेंट करने चल पड़ा तब तक उसे मालूम नहीं था कि गुरु वह गुरु गुरु तेग बहादुर जी हैं जिनके उसके परिवार से पुराने संबंध हैं और दिल्ली में उसका महल गुरुजी के चरण की धूल से पवित्र हो चुका है जहां आज बंगला साहब गुरुद्वारा है।

राजा चक्रधर चक्र ध्वज और मिर्जा राजा राम सिंह  में सुलह करवाई

  राजाराम सिंह के आग्रह करने पर गुरुजी ने तत्काल सहमति नहीं दी वह हृदय से वीतरागी भी थे और किसी भी राजनीतिक या सामाजिक उपलब्धि के प्रति उनके मन में कोई आसक्ति नहीं थी।  काफी चिंतन मन के पश्चात उन्होंने अभियान के साथ चलने की बात मान ली एक कारण निस्संदेह यह भी हो सकता है कि गुरु जी राजाराम सिंह को अपना भक्त और हितेषी समझते थे इसलिए उनके मनोबल को बढ़ाने के लिए साथ चलने की बात उन्होंने मान ली। ढाका से आसाम के धुबडी नगर तक गुरु जी ने राजा राम सिंह के साथ यात्रा की सन १६६९  के जनवरी के महीने में उन्होंने आसाम की जीवन रेखा कहलाने वाली ब्रह्मपुत्र नदी को पार किया नदी के तट के एक ऊंचे स्थान को गुरु जी ने प्रवास के लिए चुन लिया तेग बहादुर जी के प्रवास स्थल से करीब १५ मील दूर रंगा माटी में राजाराम सिंह की फौज ने पड़ाव डाला।

 यहां पर राम सिंह ने युद्ध की रचना की और एक सुबह कामरूप के राजा चक्र ध्वज  के विरुद्ध बड़ी तेजी से युद्ध के लिए मैदान में उतर आया। गुरु तेग बहादुर जी की का मकसद कामरूप के जादू को बेअसर करना है यह खबर फैला दी गई ताकि इससे कामरूप की सेना हतोत्साहित हो जाए  यह भी कहा जाता है कि मार्ग में उन्होंने इस तरह से जादू चला है जिन्हें चमत्कारी सिख गुरु ने प्रभावहीन कर दिया।   उसके बारे में कई दिलचस्प कथाएं प्रचलित है कहा जाता है की ओहम राजा की सेना की एक टुकड़ी का नेतृत्व उस अंचल की प्रसिद्ध जादूगरनी  नेताई ने की थी ब्रह्मपुत्र नदी के एक तट पर गुरु साहिब थे तो दूसरी तरफ नताई ,उसने पहले गुरु साहब पर एक विशाल शिलाखंड मंत्र शक्ति से भेजा जो गुरुजी से जरा फासले पर जमीन में जा धसा। धूबड़ी के ट्रेजरी ऑफिस के पास वह आज भी धसा हुआ है।  फिर उसने एक विशाल पीपल का पेड़ गुरु साहब पर फैका किंतु गुरु साहब की अध्यात्मिक शक्ति ने उसे अधर में लटका दिया।  नेताई  उस पर सवार र्थी , नेताई के हार मानने पर गुरु साहब ने उसे क्षमा कर दिया नेताई के आग्रह पर अब वह काले जादू का प्रदर्शन नहीं करेगी ,किंतु नाम अमिट बना रहे गुरु साहब ने उस स्थान का नाम  धूबड़ी रख दिया।  आज वहां गुरु तेग बहादुर जी के याद में भव्य गुरद्वारा बना हुआ है और धुबडी साहब के नाम से ही यह ब्रह्मपुत्र के तट पर गुरुद्वारा बना हुआ है और हर साल संगते उनके गुरु तेग बहादुर जी के बलिदान दिवस पर बहुत बड़ा प्रोग्राम करती है।

इतिहासकारों के अनुसार युद्ध के मैदान में उतरी सेनाओं ने के बीच जमकर युद्ध हुआ।  दोनों फौजो को पर्याप्त जन और धन की हानि हुई।  किसी परिणाम तक पहुंचने से पहले ही युद्ध समाप्त कर दिया गया और दोनों पक्षों में संधि हो गई।  आसाम के ऐतिहासिक अभिलेखों और अंग्रेज इतिहासकारों के अनुसार राजाराम सिंह और चक्र ध्वज के बीच जो संधि हुई उसमें गुरु तेग बहादुर जी की प्रेरणा थी कामरूप के शासक और मुगलों के बीच हुए पहले युद्ध के समय मुगल सेनापति अल्लाह यार खान ने राज्य की सीमा के संदर्भ में एक संधि की थी।  इसकी पुष्टि इस नवीन संधि में की गई इसके अनुसार अब विजय क्षेत्रों पर मुगलों का अधिकार रहेगा और गुवाहाटी पर अहोमियो का अधिकार बना रहेगा यह संधि १६७० में की गई।

 युद्ध खत्म होने पर सभी ने राहत की सांस ली अब तक राजा  चक्रध्वज जी को ज्ञात हो चुका था कि गुरु तेग बहादुर जी महज कोई पीर या  साधु नहीं है बल्कि वे महान सिखों के नौवें गुरु है अद्भुत ज्ञानी और विख्यात कवि तथा अपने प्रथम गुरु नानक देव जी के पद चिन्हों पर चलते हुए और ज्ञान का अमृत फल बांटते हुए धर्म यात्रा  के प्रवासी हैं सभी जाति और धर्म के लोग उनके शिष्य हैं और वे मानव धर्म के महान प्रचारक हैं गुरु जी की महिमा ज्ञात होने पर राजा चक्र ध्वज ने गुरुजी को बहुमूल्य वस्तुएं भेंट की और उनके चरणों में अपना प्रणाम किया काम रूप से प्राप्त हुए सभी ऐतिहासिक वस्तुएं बड़ौदा संग्रहालय में सुरक्षित है।

गुरु साहब की वापसी

 गुरुजी आसाम से ढाका गए और ढाका से कोलकाता होते हुए वापस पटना साहेब पहुंचे गुरु तेग बहादुर जी गुरगदी   प्राप्ति के पश्चात जब राष्ट्र की यात्रा पर निकले थे तब वह केवल सिक्खों के गुरु थे जैसे-जैसे जीवन की यात्रा बढ़ती गई और साथ ही जनसंपर्क बढ़ता गया उनके नए नए  स्वरूप उद्घाटित होते गए कभी वह स्वरूप एक आदर्श और व्यवहारिक शिक्षिक का होता कभी समाज सुधारक का कभी संस्कृति पुरुष का कभी आध्यात्मिक नेता का कभी दार्शनिक और चिंतक का कभी उद्भट्ट कवि और अप्रीतम संगीतज्ञ  का। अपनी इन यात्राओं  में गुरु नानक देव जी की.अकल्पनीय यात्राओं का पुनर आविष्कार किया और उनकी शिक्षा और विचारों का देश भर में फैले उनके अनुयायियों के माध्यम से प्रत्यक्ष साक्षात्कार किया।

असंख्य देशवासियों से उन्हें जो मान सम्मान श्रद्धा भक्ति और विश्वास मिला उसी अनुपात में देशवासियों की अपेक्षाएं भी उन पर केंद्रित हुई। वापसी यात्रा में उनका ध्यान उन्हीं अपेक्षाओं के विश्लेषण में अधिक रहा उनका मन जैसे विभाजित हो गया एक भाग ईश्वर की आराधना में लीन रहता तो दूसरा देश की जनता में निमग्न उन्हें लगता मुसलमानों के बर्बर शासन और अत्याचारों से लोगों के हृदय में निराशा का जो अंधकार फैला है उसमें आशा की किरण ढूंढती लाखों जोड़ी आंखें उन पर टिकी है धार्मिक स्वतंत्रता को जो लो उन्होंने जन-जन में ज्योतित की थी उसमें लोगों की अपेक्षा बढ़ गई थी कि गुरु साहब उस लौ को कभी बुझने ना देंगे।’ हां, कभी बुझने ना देंगे …..गुरु साहिब के मन में भी यह संकल्प उठने लगा था।

पटना नगर की सीमा पर भाई दयालदास के साथ प्रमुख शिष्यों ने गुरु तेग बहादर जी का स्वागत किया पटना के नवाब ने गुरु परिवार को अपना बाग भेंट किया था।   इसी बाग में सर्वप्रथम गुरुजी ने बाल गोविंद को देखा था जो तब ५  साल के हो चले थे परिवार के सुखद मिलन के हर्षोल्लास का वातावरण बना दिया गुरु जी को यह देख कर बड़ा संतोष हुआ कि पटना की संगत गुरु शिक्षा के प्रचार का कार्य उत्तम और संगठित तरीके से कर रही हैं।

 गुरु जी को कुछ चिंताजनक खबरें भी मिले औरंगजेब ने उत्तर भारत में गैर मुसलमानों के प्रति धार्मिक और असहष्णु नीति को तेज कर दिया  मंदिर गिराए जा रहे थे उनके विद्यालयों को ध्वस्त किया जा रहा था सिखों के प्रति भी बुरा से बुरा बर्ताव किया जा रहा था।  गुरुजी को समझने में देर न लगी कि इस पंजाब को  उनकी सख्त जरूरत है।  गुरुजी ने परिवार को पटना में ही छोड़ दिया और तत्काल पंजाब की यात्रा के लिए निकल पड़े।  बनारस जौनपुर अयोध्या लखनऊ होते हुए रोपड़ पहुंच गए. रोपड़ में सिख अनुयायियों की  बहुत बड़ी भीड़ ने उनका स्वागत किया दरअसल पूरा पंजाब ही पलक बिछा ए उनका इंतजार कर रहा था रोपड़ से गुरु जी किरतपुर गए जहां उनके सौतेले भाई सूरजमल ने उनका स्वागत किया।

 कीरतपुर में रहते हुए गुरु पातालपुरी पूरी गए जहां उनके पिता गुरु हरगोविंद जी की समाधि थी थोड़े दिन बाद गुरु आनंदपुर के लिए चल पड़े।  सारा शहर उनके स्वागत के लिए उमड़ पड़ा। आनंदपुर पहुंचने के पश्चात गुरु जी ने अपने परिवार को पटना से वहां बुला लिया यथोचित समय में भाई कृपाल चंद भाई दयालदास माता गुजरी और गुरु जी की मां नानकी  अन्य गुरु शिष्यों के साथ आनंद पर पहुंच गए। बाल गोविंद को उसी सोने की पालकी में बैठाकर आनंदपुर लाया गया जिसे ढाका की संगत ने भेंट में पटना पहुंचाया था आनंदपुर में आकर गुरु तेग बहादुर जी सिख धर्म का प्रचार करने लगे इस दौरान उन्होंने पंजाब के कुछ क्षेत्रों की यात्राएं की और  सिखों को संगठित करने का कार्य किया उन्होंने पटियाला सरहद मानसा बठिंडा संगरूर बरनाला आदि स्थानों में एकमत का प्रचार किया तत्काल दमनकारी राजनैतिक परिस्थितियों से अपने धर्म में टिके रहकर साहस पूर्वक जूझने का प्रेरक संदेश देते हुए उन्होंने गांव-गांव की यात्राएं की उनकी इन निर्भीक यात्राओं ने पंजाब के लोगों में आत्मविश्वास की लहर पैदा कर दी। मालवा के सैकडे पठानों ने सिख मत को धारण कर लिया सिख हिंदू और मुसलमान गुरु जी को सच्चे पतशाह के नाम से पुकारने लगे।

बलिदान की संकल्पना

देश के राजनीतिक  धार्मिक  और  सामाजिक वातावरण में औरंगजेब की दुर्नीति की आंधी चल रही थी कट्टरता का नग्न नृत्य देखने के लिए लोग बेबस  किए जा रहे थे काजिओ और उलेमानो को खुश करने के लिए औरंगजेब ने गैर मुस्लिम जातियों के प्रति जेहाद खड़ा कर दिया था आए दिन उसके नादर शाही फरमान जारी होते रहते इन फॉर्मनो के निशाने पर हिंदू होते उनके लिए नौकरी के दरवाजे बंद कर दिए गए उन पर चुंगी बा दस्तूर रहने दिया जबकि मुसलमानों को इससे मुक्त कर दिया गया औरंगजेब ने अप्रैल १६६९ में एक फरमान जारी करके हिंदुओं  में काम हाहाकार मचा दिया यह फरमान प्रसिद्ध मंदिरों को ध्वस्त कर किए जाने का था। वाराणसी में विश्वनाथ मंदिर को अगस्त १६६९ में गिरा दिया गया।  उसके स्थान पर मस्जिद बना दी गई। उसी वर्ष गोपीनाथ मंदिर को ध्वस्त कर दिया गया महमूद गजनवी द्वारा प्राचीन और अत्यंत प्रसिद्ध सोमनाथ मंदिर ढाए जाने के बाद गुजरात के धर्म प्रेमी भीमदेव द्वारा बनाया गया दूसरा सोमनाथ मंदिर भी औरंगजेब ने गिरवा दिया।

मथुरा के विख्यात केशवराय मंदिर जिसका निर्माण एक बुंदेला सरदार ने २२ लाख की धनराशि से कराया था १६७०  ईसवी के रमजान महीने में खंडित कर धूल में मिला दिया गया और उस स्थान पर एक भव्य मस्जिद का निर्माण कर दिया गया कुटिल औरंगजेब के इस फरमान के मद्देनजर मालवा ,उड़ीसा ,खंडेला ,जोधपुर ,उदयपुर अंबर उज्जैन ,गोलकुंडा, हैदराबाद और महाराष्ट्र के मंदिरों को धूल सात कर दिया गयाl प्रसिद्ध इतिहासकार जदुनाथ सरकार के अनुसार हिंदुओं पर दमन चक्र चलाते हुए औरंगजेब ने उनके होली और दीपावली त्यौहार के मनाने के संबंध में भी यह आदेश दिया कि इन्हें बाजार से बाहर ही और नियंत्रित रूप से मनाया जाए। हिंदुओं की परतंत्रता के सबसे कठिन दिन बन गए विस्मयजनक तो यह था कि हिंदुओं के विरुद्ध इस भेदभाव को देखते हुए भी मिर्जा राजा जयसिंह राजा जसवंत सिंह राठौर और कई हिंदू और राजपूत सरदारों ने जो मुगल साम्राज्य में उच्च पदों पर नियुक्त थे उंगली तक ना उठाई।  वे अपने  स्वार्थ पूर्ण प्रयोजनों  से इस प्रकार बंधे हुए थे कि उन्हें अपनी गद्दी तथा निजी लाभ के अतिरिक्त कुछ भी दिखाई नहीं देता था उनका धर्म उनके अंदर की उस भावना को उद्दीप्त करने में असफल हो चुका था जिसे इस्लाम धर्म ने अपने अनुयायियों में भर दिया था.

तत्कालीन ऐतिहासिक स्थितियों का  विश्लेषण करने पर स्पष्ट हो जाता है कि औरंगजेब की कट्टर नीति के उत्तरदायी  उस समय के हिंदू ही थे उस समय तक वे एकदम निर्बल निराश और पूरी तरह भाग्यवादी बन चुके थे.यदि औरंगजेब को उसके भेदभाव नीति के प्रयोग के समय किसी विरोध का सामना करना पड़ा होता अथवा अपने प्रभा मंडल की सुरक्षा में जुटे किसी भी हिंदू सरदार की ओर से चुनौती मिली होती तो संभव था वह कुछ सोचने को बाध्य होता तथा किसी सीमा पर रुक जाता।

 आनंदपुर साहिब में गुरुजी के पास औरंगजेब के अत्याचारों की खबरें लगातार पहुंच रही थी इसी के साथ गुरु जी की चिंतन प्रक्रिया तीव्र होती जा रही थी सिख पंथ यह विश्वास करता है कि सृष्टि में बुराइयां तथा दुख दोनों हैं इन बुराइयों तथा दुखों को दूर करने के लिए प्रभु स्वयं अवतरित ना होकर अपने भक्तों तथा संतो को भेजते हैं। इसलिए संघर्ष और यातनाएं इन संतों के जीवन के अंग बन जाते हैं इन कष्टों को वे प्रभु की इच्छा की पूर्ति के लिए अपनी सभी इच्छाओं को उसकी इच्छा के प्रति अर्पित करते हुए बड़े आनंद पूर्वक रहते हैं गुरु नानक देव जी ने तो यह स्पष्ट कर दिया था -: “जो तो प्रेम खेलन का चाओ ,सिर धर गली मोरी आओ। इत मार्ग पैर धरीजै  सिर दीजै  काण ना कीजै।।

इतिहासकार मेकालिफ के अनुसार मत -परिवर्तन का सामूहिक प्रयोग सर्वप्रथम कश्मीर में किया गया। कश्मीरी पंडित अपने पंडितय के लिए सुप्रसिद्ध थे उनके द्वारा धर्म परिवर्तन करने से दूसरे हिंदुओं को इस्लाम स्वीकार करने के लिए उत्साह मिल सकता था इफ्तिखार खा ने सम्राट के आदेशों को कठोरता से अनुसरण किया और शक्ति द्वारा निष्ठुरता से पंडितों का धर्म परिवर्तन करने का प्रयास किया जिन्होंने इस्लाम स्वीकार करने से इनकार किया उन्हें मौत के घाट उतार दिया गया सिख इतिहास में हमें उन ब्राह्मणों के जनेऊ के ढेर के बारे में बताया गया जिसका या तो धर्म परिवर्तन कर दिया गया अथवा मार दिया गया था गुरबिलास पातशाही १० के लेखक केयर सिंह कलाल के अनुसार इफ्तिखार खान आदेशों से जिन्होंने इस्लाम धारण कर लिया था उनके जनेऊ का वजन सवा मन था। उन दिनों यह उक्ति प्रचलित हो गई थी कि जब तक औरंगजेब  सवा मन वजन के बराबर जनेऊ उतारने की खबर ना पा लेता है तब तक रात का भोजन नहीं करता था। अतिशयोक्ति में कही गई इन बातों का आशय सिर्फ इतना ही था कि ब्राह्मणों के तन पर जाति और मित्रता के सूचक जनेऊ को औरंगजेब ने उनके गले का फंदा बना दिया था

कश्मीरी ब्राह्मणों के आंखों के आगे अब सिर्फ अंधेरा था अगर धर्म बचाते हैं तो तन त्यागना पड़ता है और तन बचाते हैं तो धर्म को आना पड़ता है आखिर कश्मीर के अलग-अलग क्षेत्रों के ब्राह्मणों ने मटन जाने का फैसला किया मटन श्रीनगर से ४० मील की दूरी पर स्थित एक छोटा सा नगर था यहां पंडित कृपाराम रहते थे। वे कश्मीर में संस्कृत की संस्थाओं के अध्यक्ष से साथ-साथ वेदों के प्रकांड प्र विद्वान थे पंडितौ का एक दल कृपाराम के आवास पर एकत्रित हुआ। धर्मांतरण का मसला  सामूहिक चिंता का विषय था पंडित कृपाराम ने ब्राह्मणों को बताया कि उसके पास कुरुक्षेत्र और हरिद्वार के ब्राह्मणों के दूत पत्र लेकर आए हैं उन्हें भी चिंता है कि संकट की इस घड़ी में किसके पास अपनी फरियाद लेकर जाएं !ब्राह्मणों के बीच सलाह- मशवरा होता रहा ।एक वृद्ध ब्राह्मण ने कहा” हम सब बाबा अमरनाथ चलते हैं भगवान  शिव ही अब हमारी रक्षा करेगे “।

कृपाराम ने कहा आज तक कभी हमने ईश्वर के प्रमुख सामूहिक कल्याण सामूहिक उत्थान अथवा सामाजिक मुक्ति के लिए प्रार्थना की है ?ईश्वर से हम ने जो मांगा सिर्फ अपने लिए मांगा हम स्वार्थ केंद्रित याचक बने रहे, देशभर में असंख्य मंदिर गिराए गए उनकी रक्षा के लिए कोई भी देवता सामने क्यों नहीं आया ?क्योंकि आतताइयों से निर बल जनों की रक्षा के लिए भगवान  युद्ध नहीं करते बल्कि उनकी प्रेरणा से निर्बल ही सबल बनते हैं या ईश्वर अपने किसी महान दूत का चयन करता है और उसे शक्ति संपन्न बनाकर उस के माध्यम से पीड़ितों की रक्षा करता है। पंडित कृपाराम के तीक्ष्ण तर्कों से ब्राह्मणों के बीच सन्नाटा खिंच गया कुछ पल बाद उसी वृद्ध ब्राह्मण ने हताश स्वर में कहा तो कोई उपाय शेष नहीं बचा पंडित कृपाराम ने विचार मगन स्वर में कहा एक ही उपाय है कि हम सब पंजाब चलें ब्राह्मणों के तराण दाता वहीं मिलेंगे।

कैसी बातें करते हो कृपाराम पंजाब में तो क्या हिंदू क्या मुसलमान सभी सिख बनते जा रहे हैं सिख हमारे दुश्मन ना सही परिक्रमा गुरु हमारे कर्मकांडो  का विरोध करते हैं तिलक जनेऊ की आलोचना करते हैं वैसे राज्य में भला हमारा तराण दाता कौन होगा ।पंडित कृपाराम गंभीर की गंभीर आवाज गूंजी सिखों के नौवें गुरु गुरु तेग बहादुर ।

कुछ ब्राह्मणों का मुंह तो  खुला का खुला ही रह गया।  पंडित कृपाराम ने कहा मै उनके दरबार में रह चुका हूं उनके अमृत उपदेशों से अपनी आत्मा को तृप्त कर चुका हूं वे जीवन के प्रलोभन से पूरी तरह मुक्त महापुरुष है एक व्यक्ति के रूप में उन्होंने अपने अहम का त्याग कर दिया है उनकी संकल्प शक्ति के सामने हिमालय भी बोना है वह एक संपूर्ण योगी है उनकी तारीफ मैं क्या करूं औरंगजेब को सबसे शक्तिशाली मानता है फिर भी भयभीत रहता है जबकि गुरु तेग बहादुर ने तो जाना ही नहीं कि  डर किसे कहते हैं। वह अकेले ही औरंगजेब के अत्याचारों का मुकाबला कर सकने में सक्षम है हम उन्हीं की शरण में चलते हैं बस देश में वही अकेले महापुरुष है जो ब्राह्मणों की रक्षा कर सकते हैं ।

कृपाराम ने कश्मीर से बाहर से आए ब्राह्मण दूतों को यह कहकर वापस भिजवा दिया कि वह २५  मई की तिथि को अपने प्रतिनिधियों को अनंदपुर   साहिब पहुंचने को कह दे तय हुआ उसी दिन कश्मीरी ब्राह्मणों का एक दल गुरु जी की शरण में आनंदपुर पहुंचेगा ।दिन बीते और १६७५ के मई महीने की २५ वीं तिथि  आ गई।  आनंदपुर साहिब में एक अध्यात्मिक स्पेशल सम्मेलन चल रहा था लोग गुरबाणी के मधुर पद मद तन्मयता से  सुन रहे थे श्रोताओं में बड़ी संख्या में ग्रामीण जन उपस्थित थे गुरुजी पद सुनाते और बीच-बीच में उसका सरल व्याख्या सुनाते जाते तभी हलचल सी मच और लगभग ५००  ब्राह्मणों का एक जत्था वहां पहुंचा। सबसे आगे पंडित कृपाराम थे उन्होंने शेष ब्राह्मणों को पीछे शांति से बैठने का इशारा किया और १५ ब्राह्मणों को साथ लेकर गुरुजी के निकट पहुंच गए।  गुरुजी ने कृपाराम को देखते ही पहचान लिया ।पास बैठा कर स्नेह से पूछा कि यह पंडित जी इतने बड़े जलूस के साथ आने का प्रयोजन क्या है?

पंडित कृपाराम ने दोनों हाथ जोड़कर गुरुदेव को कातर नेत्रों से देखते हुए कहा हम और कहीं नहीं जा सकते आपकी शरण में आए हैं आपसे प्रार्थना है आप हमारे धर्म की रक्षा करें ।जालिम सरकार के हाथों हिंदू धर्म के विनाश को रोके सदियों पुराने हमारी प्रतिष्ठा को मटिया मेट होने से बचा लीजिए कहते हुए कृपाराम की आंखें डबडबा गई।

गुरुजी ने गहन करुणा से कृपाराम की ओर देखा धर्म के नाम पर अपने लाचार देशवासियों के खून खराबे और दमन के दुख दर्द भरे वृतांत उनके मन मे गहरी वेदना से भर गए ।वे मौन होकर ब्राह्मणों के दुर्भाग्य पर विचार करने लगे वह अंतर ज्ञानी थे इसलिए अत्याचार के प्रतिकार का स्वरूप पल भर में उनके मन में कौंध गया ब्राह्मण टकटकी लगाए गुरूजी के मुख्य मंडल निहार रहे थे ।कुछ देर में के मौन के बाद गुरुजी ने कहा इन समस्याओं का एकमात्र यही समाधान है कि कोई उच्च आदर्श और आचरण वाला सत्यवादी व्यक्ति हिंदू धर्म की रक्षा के लिए अपना बलिदान दे दे ।यह सुनते ही सभा में खामोशी पसर गई ।

९ वर्षीय बालक गोविंद एकाएक वहां पहुंचे तो देखा कि दहशत जदा ब्राह्मणों के बीच उनके पिता बैठे हुए हैं उन्होंने पिता से सहजता से पूछ लिया कि वे इतने चिंतित क्यों है उत्तर में गुरु जी ने कहा कि कश्मीरी लोग इस्लाम धर्म में परिवर्तित किए जाने से बहुत आतंकित है कोई सत्यवादी धर्मात्मा ही अपना बलिदान देकर उनकी रक्षा कर सकता है बाल गोविंद ने तत्काल कहा आप से अधिक योग और कौन हो सकता है।

तेग बहादुर जी ने पटना में पहली बार जब अपने ५ वर्षीय पुत्र को देखा था तभी बालक की असाधारण प्रतिभा और क्षमता को उनकी अंतर्दृष्टि ने ताड लिया था इस समय बालक के इस सुझाव को उन्होंने ईश्वर की ओर से दिया गया दिव्य संकेत समझा संशय के मिटते ही उनका हृदय अनंत से भर उठा उनके हृदय में बलिदानी संकल्प की जो भाव उठे थे पुत्र गोविंद ने उसको पुष्टि दी।  उन्होंने कश्मीर के आए लोगों से कहा कि वे दिल्ली जाकर बादशाह से कह दे कि बादशाह यदि गुरु तेग बहादुर का धर्म परिवर्तन करा सके तो उनके साथ समस्त लोग स्वेच्छा से इस्लाम धर्म अंगीकार कर लेंगे।वह इतिहास का अद्वितीय क्षण था जो तिलक और जनेऊ गुरु जी को कभी प्रभावित नहीं कर सका उसी की रक्षा के लिए वह अपना जीवन दाव पर लगा रहे हैं थे। यह दाव देशवासियों को निर्भयता प्रदान करने के लिए था- जीवन मूल्यवान है किंतु राष्ट्र अमूल्य है।  उसी मूल्यों की रक्षा के लिए गुरुजी ने हिंदुओं का नेतृत्व स्वीकारा और आत्मबिलदान का संकल्प धारण किया। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने उस क्षण को इस तरह काव्य में बांधा है-:

” जाओ प्रियवरो  निर्भय हो लिख दो बादशाह को पत्र। तेग बहादुर, मुसलमान हो तो यह मत फैले सव्रत। वही अग्रणी आज हमारा हम सब हिंदू उसके संग। देखो क्या उत्तर देता है इसका अन्यायी औरंग।

बलिदान पथ पर

गुरु तेग बहादुर जी को बादशाह के सामने हाजिर होने का शाही फरमान जारी कर दिया गया औरंगजेब को जब कश्मीरी ब्राह्मणों का प्रस्ताव मिला था तब एकबारगी तो वह हक्का-बक्का रह गया था वह एक संकीर्ण तबीयत का कठमुल्ला  था इसलिए उसकी समझ में नहीं आया कि ब्राह्मणों ने क्योंकर तेग बहादुर जी जैसे सिख गुरु को अपना आध्यात्मिक नेता स्वीकार किया है। मगर वह खुश था कि भय और आतंक के सहारे गुरुजी को इस्लाम में दीक्षित कर लेगा और इस तरह आसानी से देश के सारे ब्राह्मण मुसलमान बन जाएंगे। गुरु जी के महान संकल्प और भविष्य दृष्टि कि वह कल्पना भी ना कर सका।गुरुजी ने अपने मन को भीषण कठिन परीक्षा के लिए तैयार कर लिया था उन्होंने अपने योग्य पुत्र गोविंद राय को गुरू नानक देव जी की गदी पर अपना  उत्तराधिकारी प्रतिष्ठित कर दिया। फिर अपने परिवार और संगत से विदा लेकर शांत मन से दिल्ली के लिए प्रस्थान किया उनके साथ उनके तीन प्रिय श्रद्धालु  भाई मती दास, भाई सती दास, और भाई दयाल दास जी भी थे।

जुलाई का महीना शुरु हो चुका था आसमान पर मानसूनी बादल दिखने लगे थे शाही जासूस गुरु जी के यात्रा पथ पर निगाह रखे हुए थे गुरु जी अभी मलकपुर ही पहुंचे थे कि रोपण थाने के नूर मोहम्मद मिर्जा को इस यात्रा की खबर मिल गई उसने रोपड़ पहुंचने से पहले गुरु जी को उनके तीनों शिष्यों के साथ गिरफ्तार कर लिया। उन्हें सरहिंद के रास्ते दिल्ली ले जाया गया ।कुछ इतिहासकारों का मानना है कि गुरु साहब ने आगरा के एक बाग में अपनी गिरफ्तारी दी थी दिल्ली में जबरदस्त पहरे के बीच उन्हें जेल में डाल दिया गया।

औरंगजेब ने पहले तो गुरु जी को यह प्रलोभन दिया कि यदि वह इस्लाम स्वीकार कर लेते हैं तो देश के सर्वोच्च धार्मिक नेता  बना दिए जाएंगे और ब्राह्मणों को भी जब वह मुसलमान बन जाएंगे ऊंचे सरकारी पदों पर नियुक्त कर दिया जाएगा। गुरु जी ने औरंगजेब के प्रस्ताव को ठुकरा दिया ।तब गुरु जी से कहा गया कि वे आध्यात्मिक शक्तियों का प्रदर्शन करते हुए कोई चमत्कार दिखाएं। गुरुजी ने फिर इंकार कर दिया गुरु जी ने इसे पाखंडीयो और बाजीगरो का करतब मानते थे। औरंगजेब की समझ में आने लगा था कि यह गुरु तो किसी और मिट्टी का बना है उसने गुरुजी को जंजीरों में जकड़ कर लोहे के पिंजरे में कैद रखने का हुक्म सुना दिया। ऐसा ही किया गया परंतु गुरुजी के चेहरे पर चिंता या परेशानी की एक लकीर भी नहीं उभरी।

  गुरुजी जितना शांत रहते औरंगजेब उतना ही परेशान होता उसने सोचा ऐसा कुछ किया जाए कि गुरुजी का कलेजा कांप उठे उसने भाई मती दास को आरे से चीर देने की बर्बर हुक्म सुना दिया।औरंगजेब के हुक्म पर जब भाई मती दास को आरे से चीरा जा रहा था गुरुजी के पिंजरे को पास ही रख दिया गया था ताकि उस हृदय विदारक दृश्य को देखकर गुरुजी डर जाए ।औरंगजेब को जब जल्लादों   ने सूचना दी कि हजूर आरी से चीरे जाते समय मती दास जी शांति से गुरुओं की वाणी का पाठ कर रहा था इतनी शांति से उसके गुरुजी भी उसे देख रहे थे जैसे कत्ल ना होकर वहां कोई पूजा -पाठ हो रहा है। इससे बौखला कर औरंगजेब ने भाई दयालदास को उबलते  तेल के भी कढ़ाई में डालने और भाई सती दास को रुई से लपेट कर जला देने का हुक्म भी जारी कर दिया।  औरंगजेब की क्रूरता अपने चरम पर थी किंतु गुरु तेग बहादुर जी उतने ही बेअसर थे जैसे वे अपनी काया में थे कि नहीं । उन्हें यातनाएं भी दी गईं तो मुख मंडल की  आभा जैसे और तेज हो गई आखिरकार औरंगजेब ने हुक्म दे दिया। गुरु जी के सर उनके धड़ से अलग कर दिया जाए।

अद्भुत बलिदान

११ नवंबर १६७५ ईस्वी सुबह से ही अकाश में हल्के बादल छाए हुए थे उत्तर-पश्चिमी हवा में शाीत  की लहर थी गुरू तेग बहादुर जी को लोहे के पिंजरे से बाहर लाया गया।  गुरुजी के मुख्य मंडल पर अपूर्व शांति विराजमान थी उन्होंने स्नान करने की इच्छा प्रकट की समीप ही एक कुआं था उन्हें स्नान की अनुमति दे दी गई। गुरु जी ने स्नान किया और पास में एक वटवृक्ष के नीचे बैठ गए। हाथ में नंगी तेग लिए जल्लाद जलालुद्दीन उनके साथ लगा रहा.गुरुजी ने एक क्षण के लिए आंखें बंद की तो असंख्य भारतवासियों के चेहरे उनके स्मृति  पटल पर उभर आए लाखों लोगों ने उनसे अपने धर्म के प्रति जोआस्था पाई ,उन पर जो अटूट विश्वास किया आज उसकी पुष्टि हो जाएगी। आज २३ विक्रमी संवत १७३२ की माघ सुदी पंचमी तिथि को देश के कोने कोने में यह संदेश पहुंचेगा की जन जन की धार्मिक स्वतंत्रता और मौलिक अधिकारों को अब कोई औरंगजेबी तलवार काट नहीं सकेगी कोई मदांध सत्ता कुचल नहीं सकेगी आज पड़ेगी एक निर्भय भारत के निर्माण की नींव।

जल्लाद जलालुदीन आश्चर्य से गुरु जी के तेज दीप्त मंडल को निहार रहा था आंखें खोलकर गुरुजी ने उसे देखा और सीमित मुस्कुराहट के साथ बोले अब मैं जपुजी साहब का पाठ करूंगा ।जैसे ही मेरा पाठ समाप्त हो और मैं निरंकार सर्वेभय भंजन के आगे सिर  झुकाऊं हूं तो मेरी गर्दन पर वार कर देना। गुरु जी तन्मय होकर जपुजी का पाठ करने लगे उनके मुख पर इतनी गरिमा इतनी आभा और इतनी शांति थी कि जलाद हैरान परेशान होता कि इस पेशे में वह  काफी अरसे से था बादशाह के हुक्म पर कितने ही सिरों को उनके शरीर से  अलग कर चुका था। मौत को सामने देखकर बड़े-बड़े शूरवीरों को कैसे पीला पढ़ते देख चुका था किंतु यहां तो बात ही उल्टी थी यह शख्स मौत का सामना इस तरह कर रहा था जैसे यह कोई इबादत हो। ना तो इनके मुंह पर बादशाह के प्रति कोई शिकायत या घृणा का भाव  ना कष्ट के शौक का और ना ही डर का बल्कि इतनी शांति और आनंद से यह धार्मिक पाठ कर रहा है बादल घने होते जा रहे थे अचानक तेज हवाएं चल पड़ी तभी बादलों की तेज गर्जना हुई गुरु जी ने पाठ के अंतिम पद को जोर से उच्चारित किया –

जिनी नाम धिआइया

गए मशक्कत घालि ।

नानक के मुख उजले केती छुट्टी नालि ।।

और प्रभु के चरणों में उनका सिर झुक गया उसी क्षण जल्लाद की तेग बिजली की तरह चली और सरताज शरीर से अलग होकर जोर से नीचे गिरा। और जल्लाद की कृपा भी नीचे जा गिरी

देश धर्म की संस्कृति की और अस्मिता की रक्षा के लिए देश की धार्मिक स्वतंत्रता की रक्षा के लिए राष्ट्र के उस संत सपूत ने अपने प्राण प्निछावर कर दिये।

“तिलक जंजू राखा प्रभु ताका। कीनो  बडौ़ कलु मै साका ।।साधनि हेति इती जिनि करी ।सीस दियां पर सी न उचरी। धर्म हेतु साका जिन किया सीसु दिया पर सिररू न दीया” ।।

गुरु गोविंद सिंह द्वारा उच्चारण किया ( विचित्र नाटक)

  • देवेंद्र सिंह (गुजराल राष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष राष्ट्रीय सिख संगत)
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