विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के क्षेत्र मे भारत का योगदान: भाग 10
विशेष माहिती श्रृंखला : भाग 10 (10-30)
रसायन विज्ञानं और प्राचीन भारत:
वास्तव में, प्राचीन काल से ही रासायनिकी विज्ञान की एक प्रायोगिक एवं उपयोगी शाखा रही है। आसानी से उपलब्ध प्राकृतिक स्रोतों, जंगलों, कृषि उत्पादों व खनिजों आदि से दैनिक उपयोग की वस्तुयें तथा मानव व पशुओं के लिये औषधियां बनायी गयी थीं। उन दिनों रासायनिकी में रसायन, औषधि, कपड़ा, रंगाई, चर्मशोधन, इत्र निर्माण, कांच, सिरामिक, रत्न, सीमेंट, मोर्टर, गारा आदि क्षेत्र सम्मिलित थे। प्राचीन भारतीय लोग उस समय के यूरोप निवासियों की अपेक्षा, इन सभी क्षेत्रों में काफी आगे थे।
भारत की प्राचीन चिकित्सा पद्धति, आयुर्वेद, मुख्यतः स्वास्थ्य संबंधी रासायनिकी है। अयस्क से स्वर्ण, रजत, लोह, ताम्र व जिंक आदि के निष्कर्षण हेतु प्रक्रियाओं का विकास, विशेष गुणधर्मों से युक्त मिश्र धातुओं का उत्पादन, चूर्णित व उपचारित धातुओं तथा धात्विक पदार्थों का औषधियों के लिये उपयोग आदि सभी मूलरूप से रासायनिक प्रक्रियाएँ है। मेल्टन, स्मेल्टन, कास्टन, स्टील टेम्परन, निस्तापन, उर्ध्वपातन, भाप उपचार (Steaming) व किण्वन (fermentation) आदि विभिन्न रासायनिक प्रक्रियाओं में प्राचीन भारतीयों को निपुणता प्राप्त थी।
‘प्राचीन भारत में रासायनिकी, प्रौद्योगिकी की ही नहीं बल्कि आयुर्विज्ञान की भी दासी थी। मध्यकालीन यूरोपीय रसायनविदों की भाँति उनकी अभिरुचि अशुद्ध पदार्थ को सोने में बदलने की नहीं थी बल्कि उनका ध्यान आयु, जीवन शक्ति व कामशक्ति बढ़ाने वाली औषधियों तथा विष या विषहरों को बनाने पर केंद्रित था ये चिकित्सक रसायनविद सरल निस्तापन व आसवन प्रक्रियाओं द्वारा कई महत्वपूर्ण क्षारो, अम्लो, व धात्विक लवणों का निर्माण करने में सफल हुये।
प्राचीन साहित्य में रासायनिकी:
वेदों में सोना, चांदी, तांबा, लौह, सीसा व वंग आदि धातुओं का उल्लेख मिलता है ।
चरक संहिता के शरीर स्थान’ अध्याय में, विभिन्न पदार्थों के गुणधर्म दिये गये हैं। चरक आण्विक संरचना से परिचित थे। वह विभिन्न पदार्थों के रंग, गंध व स्वाद आदि गुणधर्मों के अंतर का कारण आण्विक गुणधर्मों व उनके आंतरिक संतुलन को बताते हैं । चरक और सुश्रुत संहिताओं में रसायन पर अलग अध्याय हैं ।
पातंजलि का लौहशास्त्र उपलब्ध तो नहीं है परंतु बाद के काल के काफी लेखों में धात्विक लवणों, मिश्रधातुओं, स्मेल्टन व शोधन विधियों आदि का वर्णन करते वक्त इसका संदर्भ मिलता है ।
वराहमिहिर की ‘बृहत् संहिता’ में वज्रलेप व वज्रसंघट का वर्णन है । अशोक स्तंभ, मूलतः, वज्रसंघट से लेपित बलुआ पत्थर स्तंभ है जो धातु स्तंभ जैसा दिखाई देता है। बिहार में मौर्य काल की कंदराओं में ऐसा लेप है जिससे सतह कांच की तरह दिखती है ।
नागार्जुन, एक लब्धप्रतिष्ठ रसायनविद् अर्थात ‘रससिद्ध’ थे। उनके ग्रंथ ‘रसरत्नाकर’ में सोना, चांदी, पारा, अभ्रक एवं ज़िंक, लौह, सोना व तांबे आदि की विभिन्न भस्मों की शोधक विधियों का वर्णन दिया गया है । उसके अनुसार पारा, सोना, गंधक व बोरेक्स से तैयार किये गये रसायन दिव्य-देह देने में सक्षम हैं। उसने कई यंत्रों के नाम भी दिये हैं। शिला यंत्र, वंश यंत्र, अधशपतन यंत्र व तुला यंत्र आदि औषध बनाने के लिये प्रयुक्त होते थे ।
रसायन शास्त्र नालंदा, उड़ंदपुर, विक्रमशिला व काशी आदि विश्वविद्यालयों में पढ़ाया जाता था। दूसरे देशों से भी विद्यार्थी इन विश्वविद्यालयों में अध्ययन के लिये आते थे। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में खनन, धातुकी, किण्वन व रसायन घोलों का वर्णन आता है।