विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के क्षेत्र मे भारत का योगदान:भाग 22
विशेष माहिती श्रृंखला : भाग 22 (22-30)
धातू विज्ञान और भारतीय विज्ञान
गणित की भांति ही धातुकी में भी प्राचीन भारतीयों का योगदान अद्वितीय एवं विश्वप्रसिद्ध है। इस अध्याय के पहले व दूसरे खंड में 2500 ई.पू. से लेकर 13 वीं सदी तक की भारतीय धातुकी का संक्षिप्त इतिहास दिया गया है। तीसरा खंड 1400 ई.पू. के बाद भारत के विभिन्न भागों में लौह प्रौद्योगिकी के विकास से संबंधित है। अगले दो खंडों में 370 ई. में निर्मित दिल्ली, धार तथा कोडचदरी लौह स्तंभों का वर्णन है। यह स्तंभ, विशाल लौह संरचनाओं के निर्माण में भारतीय कारीगरों के कौशल के प्रमाण है। लगभग 1600 वर्षों के पश्चात भी दिल्ली लौह जंगरहित है। छठे खंड में विख्यात दमिश्क तलवारों के लिये मध्यपूर्व को नियतित, भारतीय वूट्ज़ इस्पात के निर्माण का विवरण दिया गया है।
सातवें खंड में भारत, विशेषकर राजस्थान में विकसित ताम्र प्रौद्योगिकी का वर्णन है। यह प्रौद्योगिकी गुप्त काल (पाचवी सदी) से अपने चरमोत्कर्ष पर थी जब उत्तर प्रदेश के सुल्तानगंज में मिली 2 मीटर ऊंची. एक टन मार की बुद्ध प्रतिमा का निर्माण हुआ था। अगले दो खंडों में प्राचीन भारतीय कांस्य व पीतल प्रौद्योगिकी की चर्चा है। यह वह समय था जब कला और प्रौद्योगिकी के संगम से सुंदर एवं उत्कृष्ट मूतियों का निर्माण हुआ जो आज भी कई मंदिरों और संग्रहालयों की शोभा बढ़ा रही है।
ई. पू. चौथी सदी से जस्ता प्रौद्योगिकी में भारत के योगदान का विवरण है जिसकी परिणति तेरहवी शताब्दी में राजस्थान के जोवार क्षेत्र में जस्ते के बड़े पैमाने पर उत्पादन के रूप में हुई। 1989 में अमेरिकन सोसायटी आफ मेटल्स’ ने इस अद्वितीय तकनीकी सफलता को ‘अंतराष्ट्रीय ऐतिहासिक धातुकी घटना के रूप में स्वीकार किया।
प्राचीन भारतीय साहित्य में धातुएं
ऋग्वेद काल में भी अयस्क (निधि) खनन की जानकारी थी। खनित्र (औजार) के उपयोग से खनन उत्पाद, खनित्रम् की प्राप्ति होती थी। अयस्क को भट्टी में डालने से पूर्व, ओखली व मूसल से इसको पीसा जाता था। सोना, चाँदी व ताँबा प्राप्त करने हेतु, अयस्क को भट्टी में गलाया जाता था। बाद में, ताम्र अयस्क (सल्फाइड/आक्साइड) की प्रगलन अथवा अपचयन प्रक्रिया की खोज हुई। उस काल में कृषि, शिकार व घरेलू उपयोग हेतु, काफी सारे धातु निर्मित उपकरणों का प्रयोग होता था। कृष्ण यजुर्वेद में पहली बार कुछ अन्य धातुओं, लीह (श्याम) लेड (सीसा) और टिन (त्रपु) का उल्लेख आता है। बाद में टिन को कास्तिन, बंग व रांगा आदि कई और नाम दिये गये । शुक्ल युजुर्वेद में लेड की मृदुता का महत्व बताया गया है।
वैदिक काल में स्वर्ण (शतमान) तथा चादी.(रौप्य, क्योंकि इस पर राजा का चित्र था) से निर्मित सिक्के उपयोग में लाये जाते थे ।
कॉटिल्य के अर्थशास्त्र (चौथी सदी ई.पू.) में समाज की आर्थिक उन्नति और बाहरी आक्रमण से देश की सुरक्षा के लिये खानों को सबसे अधिक महत्वपूर्ण माना गया है। यहाँ 12 तरह की धातुओं के उत्पादन का उल्लेख मिलता है।खनन, धातु उत्पादन एवं सोने व चाँदी के सिक्कों के निर्माण पर सरकार का नियंत्रण था ।
रामायण व महाभारत में भी धातुओं एवं धातुओं से बनी कई वस्तुओं का संदर्भ आता है सुश्रुत और चरक ने औषधीय उपयोग के लिए कई धातु चुर्नो का वर्णन किया है।