श्री गुरु अर्जुन देव जी का बलिदान दिवस
श्री गुरु अर्जुन देव जी का जन्म चौथे गुरू श्री गुरु रामदास जी एवम माता भानी जी के गृह में वैशाख वदी 7 सम्वत 1620, 1563 ईस्वी, को गोइंदवाल साहिब (आज के भारतीय पंजाब) में हुआ।
गुरु अर्जुन देव जी ने विश्व को सर्व सांझीवालता का संदेश दिया। इसका सबसे बड़ा उदाहरण श्री आदि ग्रंथ का संपादन है, (इसी आदि ग्रंथ में नौवे गुरू तेगबहादुर जी की वाणी को सम्मलित करके गुरू गोविंद सिंह ने इस ग्रंथ को गुरू ग्रंथ का दर्जा दिया)
गुरु जी ने श्री गुरु नानक देव जी से लेकर 5 गुरु साहिबान के साथ-साथ भट्टों, सूफी संत शेख फरीद व अनेक वर्णों और जातियों से संबंधित हिंदू भक्तों, महापुरुषों, संतों की बाणी को सिख गुरु साहिबान के बराबर सम्मान देते हुए शामिल किया क्योंकि भक्ति काल के सभी गुरुओं, भक्तों, संतों की बाणी का सिद्धांत एक परम पिता परमात्मा के निर्गुण एवम निराकार स्वरूप की उपासना है।
श्री गुरु अर्जुन देव जी भारत भूमि में अपनी संस्कृति और धार्मिक मान्यताओं पर बलिदान देने वाले प्रथम महामानव हुए हैं। इससे पहले अक्रान्ता केवल भारत में जनता से धन सम्पदा एवं हिन्दू मंदिरों से सम्पति लूटते और मूर्तियों को खंडित करने का घृणित कार्य किया करते थे। उनके युद्ध केवल क्षत्रपों से ही होते थे धनपतियों को छोड़ कर साधारण जनता एवं साधु संतों का कोई विशेष नुकसान नहीं होता था।
जबकि हिन्दू मान्यताओं में अनेक मत जैसे कि संत मत, योग, अगम, अगोचर, आर्य पद्तियाँ अनेकानेक हैं यहाँ मूर्ती पूजा नहीं होती परन्तु इस्लामी मान्यताओं में मूर्तियों की पूजा को इतना घृणत बता दिया गया है कि उनके अनुयायी बुतों को तोडना अपना सबसे पवित्रतम काम समझते हैं। इसीलिए वे मंदिरों और मूर्तियों को तोड़कर जनत के अधिकारी एवं अल्लाह के प्रिय पुत्र बन जाते थे। अंततोगत्वा केवल सम्पदा की लूट और मंदिरों को नष्ट करना ही उनका लक्ष्य रहता था। बाबर से पहले के आक्रांता स्वयं जहाँ के राजा न होकर अपने गुलामों को अधिकारी नियुक्त कर वापिस चले जाते थे।
सेल्यूकस के बाद बाबर पहला ऐसा आक्रांता था जो आया तो लूट के लिए था परन्तु उसने सदा के लिए यहाँ पर रहने का विचार बना लिया ऐसा वह अपनी पुस्तक तुज़क-ऐ-बाबरी में स्वयं लिखता है।
भक्त कबीर जी सन 1440 मैं वाराणसी में पैदा हुए और 1518 तक रहे उन्हों ने अपने जीवन काल में अनेक ऐसे दोहे रचित किये जो सीधा इस्लामिक रीतियों पर कटाक्ष थे परन्तु उन पर कभी शरीयतवाद हमलावर नहीं हुआ। फिर ऐसा क्या हुआ कि परम शांति के प्रतीक सुभाव से अति सौम्य गुरु अर्जन देव जी जिन्होंने कभी इस्लाम या शरियत के विरुद्ध कुछ नहीं कहा बलिक “मानस की जात सब एकै पहिचानवो” का उद्घोष किया l अमृतसर में हरिमंदिर का निर्माण करवाया तो उसका नींव पत्थर तक एक सूफी मुसलमान मीर मीयाँ से रखवाया और फिर भी उनको इतनी यातनाएं देकर शहीद किया गया।
बाद के लोगों ने शहीदों के सिरताज, बलिदानी गुरु अर्जन देव जी महाराज के इतने महान बलिदान को छुटियाने के लिए या किन्हीं अपने स्वार्थों के चलते समाज को गलत मार्ग पर डालने के लिए उनके बलिदान को एक शादी के लिए हुए घरेलू झगड़े को कारण बना कर लोगों में प्रचारित करवा दिया। यह कोई तुछ घरेलू झगडा न होकर दो संस्कृतियों का धर्मयुद्ध था जिसमें अधर्म जीता।
एक तरफ त्यागमूर्ती शांतचित बिराजमान थे और दूसरी तरफ तलवारों और संगीनों से अट्टा पड़ा अपने आप को किसी अल्लाह का अति धार्मिक गाज़ी समझता हुआ अधर्म का साम्राज्य खड़ा था। जिस तरह यहूदियों ने अपनी मान्यताओं को सर्वोपरि मानते हुए जीसस को सूली पर लटका दिया था ठीक उसी तरह उसी अब्राहम के वंशजों ने गुरु अर्जुन देव जी को जीसस से भी अधिक यातनाएं देकर शहीद कर दिया।
1556 ईस्वी में अकबर के लाहौर में गद्दी पर बैठने पर मुग़ल शासन मजबूत होने लगा और धीरे धीरे पंजाब के समाज में इस्लामिक संस्कृति की जड़ें लगने लगीं थीं जो कि जहांगीर का शासन आते आते साठ साल में मजबूत स्थिति में आ गयी। हालाँकि क्षेत्र में अधिकतर सामंती शासक हिन्दू ही थे परन्तु न्याय विवस्था की शक्तियां सामंतों के हाथ से निकल कर शरीयतवादी कठमुल्ला जमात के हाथ आ गयी थी। वे अब इस्लामिक मान्यताओं को किसी अल्लाह द्वारा स्वयं भेजी गयी सर्वोपरि हिदायतें और न मानने वालों को काफिर ठहिराने लगे थे। गुरु नानक देव जी का ताज़ा तरीन सन्देश इस्लाम के प्रचार प्रसार में आड़े ही नहीं आ रहा था बलिक उनके झूठों को चुनौती दे रहा था।
मैं नहीं जनता कि यह संदेश पैगम्बर मुहम्मद साहब ने इस्लाम में दिया हैं या नहीं परन्तु इस्लामी समाज की मान्यताएं थीं कि ‘खुदा किसी उप्पर के तबक पर रहता है जो वहां से अपने लोगों को पैगाम भेजता है। हज़रत मुहमद अंतिम पैगम्बर हैं और कुरान अंतिम पैगाम और उसके बाद खुदा का कोई पैगम्बर नहीं हो सकता क्योंकि अंतिम पैगाम अल्लाह ने भेज दिया है’। शरीयत का यही वह आधार था जिस पर वे इस्लाम का प्रसार कर रहे थे।
उन कठमुल्ला मौलवियों के सामने साक्षात् बैठे गुरु अर्जुन देव उनकी मान्यताओं को सीधी चुनौती थे। ऊपर से उनके गुरुबाणी के रूप मेँ श्री गुरु नानक देव जी द्वारा प्रचारित अद्वैत मत का सिद्धांत
१ओंकार सत् नाम करता पुरख निरभउ निर्वेर अकाल मूरति अजूनि सैभंग गुरप्रसाद जप अदि सच जुगादि सच है भी सच नानक होसी भी सच।अद्वैत मत का वैदिक सिद्धांत अहं ब्रह्मस्मि। तत त्वम् असि।।
कि ओम शब्द और आकार यानि सृष्टि, आत्मा और परमात्मा एक ही सवरूप है ।
जलि थल महियल पूरिया सुआमी सिरजनहार।
अनिक भाँति होए पसरिया नानक एकंकार।। १।।
यह सारा दृश्यमान जगत ओंकार का ही पसार है। सब में वही समाहित है बाहर किसी तबक पर कोई नहीं बैठा है।
हम अपने मूल से अहं के कारण से बिछड़े हैं l
मन तू जोत सरुप हैं अपना मूल पछाण। और सच्चा नाम ओमकार है जो सभी प्राणियों मेँ विधमान है । ओमकार शब्द के जपने के द्वारा कोई भी प्राणी परमात्मा को उपलब्ध हो सकता है और मोक्ष का अधिकारी होता है ।
कीर्तन मेँ दिन रात चलने वाले गुरुबाणी के यह वक्तव्य कि “घट घट मेँ हरि जु वसे संतान कहियो पुकार’ सभै घट राम बोले, रामा बोले, राम बिना कओ बोले रे l सभै घट राम बोले l
यह तो इस्लाम क्या अब्राहमिक सिद्धांत के मूल पर प्रहार हो रहा था जिसका उद्घोष एक स्वयंसिद्ध ब्रह्मज्ञानी गुरु द्वारा हो रहा था।
इतना बड़ा शासन होते हुए भी इस्लामिक शासन परेशानी में था ।
उस समय का सुन्नी इस्लाम का सबसे बडा प्रचारक शेख अहमद सरहंदी ( पंजाब में हिंदुओं को मुस्लिम बनाने का सबसे बडा हाथ इसी का था, आज भी इसकी मजार सरहिंद, पंजाब में है और मक्का के बाद सबसे मान्य स्थल है)
हिन्दुओं के लिए नफरत से भरा हुआ शैतान बना हुआ था जिसकी तूती मुगलिया दरबार में बोलती थी l
पंजाब में धार्मिक एवं सांस्कृतिक जनसांख्यिकीय परिवर्तन का सबसे बड़ा जिम्मेदार शेख अहमद सरहंदी है। उसने पंजाब से हिन्दूओ को ही परिवर्तित नहीं करवाया बलिक पंजाब और सिंध के अधिकतर हिन्दू सामंतो को हटवा कर जमींदारी अधिकार मुसलमानो को करवा दिए। अधिकतर हिन्दू से मुस्लिम नवाब और सामंत इसी काल खंड में बने थे। उसके पैरोकार मौलाना मौलवियों की शिकायतों से जहांगीर ने फैसला सुनाया जिसका उल्लेख उसने स्वयं अपनी पुस्तक तुझक-ए-जहांगीरी में लिखा है : “अर्जन नाम का एक हिंदू, विशेष प्रकार के पवित्र वस्त्र पहन कर गोइंदवाल में रहता था..सीधे साधे हिंदू और अज्ञानी और मूर्ख मुसलमानों को उस द्वारा उसके तरीके अपनाने के लिए राजी किया जा रहा था, यह धंधा तीन पीढ़ियों से फल-फूल रहा था । लंबे समय से मेरे दिमाग में इस तथाकथित मामले पर रोक लगाने या उसे इस्लाम में लाने के लिए विचार चल रहा था” और उसे सजा दी गयी।
एक ईसाई मिशनरी फादर जेरोम जेबियर जो 1627 ईस्वी में उसकी मृत्यु तक गोवा में रहा उस समय दरबार में मौजूद था उसने अपनी पुस्तक में इस घटना को बताया है कि धार्मिक द्वेष के कारण एक हिन्दू साधू को अमानवीय सजा दी गयी।
जहांगीर के आदेश पर लाहौर के काजी के हुक्म पर इस्लामिक शरीयत के मुताबिक
“यासा व सियासत” के तहत ( यासा के अनुसार काफिर व्यक्ति का रक्त धरती पर गिराए बिना उसे यातनाएं देकर मारा जाता है)
ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी तिथि संवत् 1663 ( तब 30 मई, 1606 ईस्वी) को उन्हें लाहौर में भीषण गर्मी के दौरान जलते हुए चूल्हे पर रखे गर्म तवे पर बिठाया गया , गुरु जी के शीश पर गर्म रेत डाली गई। जब गुरु जी का शरीर अग्नि के कारण बुरी तरह जल गया तो उन्हें ठंडे पानी वाले रावी दरिया में उतार दिया गया, इस तरह यात्ना देकर उन्हे शहीद किया गया।
पहले मुस्लिम लेखकों के प्रभाव ने इस घटना को एक राजनीतिक कारण बनाया और 1872 के बाद पंजाब में रहे ईसाई मिशनरियों के प्रभाव में इसे शादी के लिए हुए घरेलु विवाद बताने वाले प्रकरण जोड़ दिए गए और महानतम बलिदान को छोटा करने की कोशिश की गयी। जबकि सजा देने वाला बादशाह और मौजूद साक्षी जो दोनों भिन्न धर्मों के होते हुए भी एक ही बात लिख कर गए हैं प्रमाणिक साक्ष्य होते हुए भी हम आज इसे जिहादी इस्लाम के नाम पर हुआ अत्याचार न मानकर मनघड़ंत कहानियों को इतिहास मानने पर विवश हैं।
गुरू जी का भगवान क्रिशन जी की उपासना में एक शब्द :
” मूं लालन सयों प्रीत बनीं, तोरी ना टूटै, छोरी ना छूटै,
ऐसी माधहु खींच तनी।
दिनस रैण मन महि बसत है, तू करि क्रिपा प्रभु आपनी।
हयुं बलि बलि जायों
श्याम सुंदर कयौ, अकथ कथा जा की बात सुनी।
नानक दासन दास कहियत है, मोहि करौ क्रिपा ठाकुर आपनी ।।
आज बलिदान दिवस पर गुरु अर्जुन देव जी के श्री चरणों में मेरा शत शत नमन ।
- सुखविंदर सिंह दोआबीआ