कन्वर्जन के लिए काम करता था दरबारी फ़कीर ‘अमीर खुसरो’
हिंदुत्व पर इस्लाम के विस्तार को महिमामंडित करती कव्वाली है -”छाप , तिलक सब छीनी रे , मो से नैना मिलायके ” गजवा-ए-हिंद का सिपहसालार था कथित फ़कीर ‘ अमीर खुसरो ‘ जिसकी रचनाओं का मूल तत्व रहा है – सब ताज उछाले जाएंगे, सब तख्त गिराए जाएंगे…
राजेश झा
अमीर खुसरो रचित कव्वाली – “छाप तिलक सब छीनी रे मोसे नैना मिलाइके” हिंदुत्व पर इस्लाम के विस्तार को महिमामंडित करती कव्वाली है।यह इस्लामी विस्तार के लिए बहुत सोच समझकर लिखा गया गीत है। लेकिन स्वाधीन भारत में अमीर खुसरो को हिंदी साहित्य के वामपंथी व्याख्याकारों ने पाठ्यपुस्तकों में भी एक परम संत, परम दयालु, परम विद्वान, भारत से अगाध प्रेम करने वाले गंगा-जमुनी तहजीब के जन्मदाता के रूप में पेश किया है।पूरी कव्वाली का अर्थ समझने पर हम जान सकते हैं कि हजारों साल से कितने भयानक षड्यंत्र के शिकार हम बने हुए हैं! इस क़व्वाली का अर्थ है मेरे पीर (‘ऐबदार निज़ामुद्दीन’ जो खुसरो का रिश्तेदार भी था) ने मुझे देख कर मेरी छाप-तिलक सब छीन ली। मुझे अपने रंग में रंग दिया, अपने जैसा कर दिया, अर्थात मुझे मुसलमान बना दिया।
कृष्ण के भक्त अपने शरीर के 8 स्थानों पर श्री चिन्ह, तिलक आदि लगाते थे और इस्लामी फकीरों का काम था हिंदुओं से उनका हिंदुत्व अर्थात छाप तिलक आदि को छीनना।लोग पहले हिंदू थे और इस्लामी सत्ता द्वारा जबरन मुसलमान बनाये जा रहे थे। कन्वर्टेड मुसलामानों की संख्या दिनोंदिन बढ़ती ही जा रही थी, तो इनकी संख्या लगातार बढ़ते जाने से इस्लाम में इनका बहुमत होता जा रहा था। उनको इस्लाम के अनुशासन में बनाए रखना एक बड़ी चुनौती थी। उन्हें कुंठा और निराशा से निकालना, उन्हें खुश रखना, इस पछतावे से दूर रखना कि वे हिंदू से मुसलमान बन गए हैं – इसका बेहतर साधन संगीत और साहित्य ही हो सकता था। अगर ऐसा इंतजाम न किया जाता, तो वे कभी भी बगावत कर सकते थे। उन्हें प्रेम भट्टी की मदिरा पिलाना जरूरी था। अमीर खुसरो ने सल्तनत काल में इस्लाम के प्रचार-प्रसार में प्रेमभट्टी की मदिरा पिलाने की भूमिका निभाई।
सल्तनत काल में अमीर खुसरो अनेक सुल्तानों के दरबार में दरबारी रहे जिसके एवज में उन्हें मोटी रकम मिलती थी। वे शिकार की तलाश में अर्थात नए हिंदुओं को फंसाकर इस्लाम में हांकने के लिए फकीरों की तरह गांव-गांव घूमते थे और बाजा बजाकर, अपनी सुमधुर आवाज में गाकर लोगों को अपने उस्ताद निजामुद्दीन के पास ले आते थे। इस्लाम में फंस चुके लोग निजामुद्दीन के दरबार में बैठकर छाप-तिलक की धुन पर मस्त होकर नाचते थे, इससे नए शिकार को भी वहम हो जाता था कि इस्लाम तो बड़ा मजेदार धर्म है जबकि इस क़व्वाली का अर्थ है मेरे पीर (‘ऐबदार निज़ामुद्दीन’ जो खुसरो का रिश्तेदार भी था) ने मुझे देख कर मेरी छाप-तिलक सब छीन ली। मुझे अपने रंग में रंग दिया, अपने जैसा कर दिया, अर्थात मुझे मुसलमान बना दिया।यह इस्लामी विस्तार के लिए बहुत सोच समझकर लिखा गया गीत है।
उसी तरह ‘हे माँ आज रंग है, मुईनुद्दीन के घर, घसीटुद्दीन के घर रंग है” का अर्थ उसके घर पर लोगों को मुसलमान बनाया जा रहा है। ये घोर साम्प्रदायिक काव्य हैं जो इस्लाम का स्वभाव है। प्रज्ञा चक्षु जाग्रत कर पढ़ने पर किसी भी हिन्दू को अमीर खुसरो से घृणा हो जाएगी। खुसरो के इस गलीज काव्य को पढ़िए-
जहान् रा क़दीम आमद ईन् रस्मो पीशे
कि हिन्दू बुवद सैदे तुर्कान् हमीशे
ज़ि रस्मी कि रफ़्त अस्त चर्ख़े रवान् रा
वुजूद अज़ पये तुर्क शुद हिन्दुवान् रा
कि तुर्क अस्त ग़ालिब बर ईशान् चु कूशद
कि हम गीरद ओ हम ख़रद हम फ़ुरूशद
(अमीर ख़ुसरो कृत मसवनी ए नुह सिपहर)
बे-जिम्मे गर न बूदे रुख़शते शर्अ
न मांदे नामे हिन्दू ज़ि अस्ल ता फ़र्अ
(अमीर ख़ुसरो कृत मसनवी ए देवल रानी ख़िज़्र ख़ान्)
फारसी में लिखे गए उपरोक्त पंक्तियों का हिंदी अनुवाद इस प्रकार है – “संसार की अत्यंत प्राचीन काल से यह रीति चली आ रही है कि हिन्दू सदा से तुर्कों का शिकार है। पैर से धकेले जाने वाले रहट की तरह हिंदुओं का अस्तित्व तुर्कों के पैरों पर टिका हुआ है।हिंदू लोग सदा ही तुर्कों के अधीन रहते हैं, तुर्क जब चाहता है इन सबको पकड़ता है इन्हें खरीदता और बेचता रहता है। यदि हिदुओं से ‘जजिया ‘ लेकर उनके प्राण न बख्शे गए होते तो हिंदुओं का नामो निशान मिट गया होता।” यह अनुवाद श्री सर्वेश त्रिपाठी ने किया है।
( यह लेख केंद्रीय गृह और वित्त मंत्रालय में निदेशक रहे और लगभग ४० वर्षों तक सेवा देने के बाद हाल ही में अवकाश प्राप्त प्रशासक श्री शशिकांत सिंह से बातचीत पर आधारित है )