पुलिस ड्रग्स-व्यापारी नफीस चिश्ती की शान बढ़ाती और वह हिन्दू महिलाओं का बलात्कार करता
(अजमेरशरीफ के बदमाश चिश्ती भाग ५ )
चिश्तियों ने कृष्णबाला नामक सबसे मजबूत गवाह को गायब करा दिया है ऐसा पुलिस कहती है। सावित्री स्कूल और सोफिया स्कूल भी अब लड़कियों के लिए अपनी छात्रावास वाली सुविधा नहीं चलाता है। दोनों में से कोई भी स्कूल अपनी प्रतिष्ठा को पूरी तरह से वापस नहीं पा सके हैं। सालों तक, अजमेर शरीफ दरगाह के चिश्तियों द्वारा किये गए बलात्कार कांड’ का कलंक, कम-से-कम अजमेर के अधिक रूढ़िवादी वर्गों की नज़र में, शहर की सभी युवतियों को कलंकित करता रहा था, चाहे वे उस गिरोह के सम्पर्क में आईं हो या नहीं। कोई भी अजमेर की लड़कियों से शादी नहीं करना चाहता था। 1990 के दशक में लोग आगे होने वाली शादियों के बारे में बताते थे और पत्रकार को दुल्हन की तस्वीर दिखाकर यह बताने के लिए कहते थे कि यह ‘चिश्ती गुंडों के शिकारों में से एक तो नहीं हैं। ‘
राजेश झा
थानेदार दलबीर सिंह के अनुसार, नफीस एक ‘आदतन अपराधी’ है, लेकिन इससे उसकी सामाजिक प्रतिष्ठा कभी प्रभावित नहीं हुई। इस थाना प्रभारी ने कहा, ‘साल 2003 में, उसे 24 करोड़ रुपये की स्मैक के साथ पकड़ा गया था। उसके खिलाफ अपहरण, यौन उत्पीड़न, अवैध हथियार और जुआ खेलने के भी मामले दर्ज हैं.पत्रकार संतोष कुमार गुप्ता बताते हैं कि आज के दिन में नफीस और फारूक चिश्ती अजमेर में एक ऐशो-आराम का जीवन जी रहे हैं और दरगाह शरीफ में अक्सर आते रहते हैं, जहां कुछ वफादार अभी भी उनके हाथों को चूमते हैं। उसकी रिहाई के बाद से, शहर के लोग इस बात की लेकर नाराजगी जताते रहते हैं कि फारूक के साथ प्रतिष्ठित खादिम परिवार के एक सम्मानित बुजुर्ग की तरह व्यवहार कैसे किया जाता है।फारूक चिश्ती के एक करीबी ने कहा कि यह मामला खत्म हो चुका है और इस बारे में पीछे मुड़कर देखने की कोई जरूरत नहीं है। नफीस चिश्ती ने भी कहा शहर में सात या आठ लोग नफीस के नाम से जाने जाते हैं। ‘
दरगाह वाले इलाकेसे (जहां चिश्ती खानदान के सदस्य बड़े और सुव्यवस्थित घरों में रहते हैं) दूर अतीत को पीछे छोड़ पाना अधिक कठिन रहा है। सावित्री स्कूल अभी भी चल रहा है, लेकिन इसका छात्रावास 1992 के बाद से बंद है। सोफिया स्कूल भी अब लड़कियों के लिए अपनी छात्रावास वाली सुविधा नहीं चलाता है। दोनों में से कोई भी स्कूल अपनी प्रतिष्ठा को पूरी तरह से वापस नहीं पा सके हैं। सालों तक, इस ‘कांड’ का कलंक, कम-से-कम अजमेर के अधिक रूढ़िवादी वर्गों की नज़र में, शहर की सभी युवतियों को कलंकित करता रहा था, चाहे वे उस गिरोह के सम्पर्क में आईं हो या नहीं।गुप्ता याद करते हुए बताते हैं, ‘कोई भी अजमेर की लड़कियों से शादी नहीं करना चाहता था। 1990 के दशक में मुझे बहुत सारे अवांछित आगंतुक मिलते थे। लोग मुझे आगे होने वाली शादियों के बारे में बताते थे और मुझे दुल्हन की तस्वीर दिखाते थे , फिर वे मुझसे यह बताने के लिए कहते थे कि क्या वह ‘उनमें से एक’ तो नहीं हैं। ‘ उन्होंने यह भी कहा कि इस खबर के सामने आने बाद के कई महीनों तक अगर कोई लड़की आत्महत्या करती थी, तो उसे उस गिरोह का शिकार माना लिया जाता था।
जब सुषमा 22 साल की थी, तब उसके परिवार वालों ने उसकी शादी किसी दूसरे शहर के एक फल विक्रेता से कर दी। अपनी शादी की रात में, उसने उसे अपनी व्यथा के बारे में सब बता दिया। उसके पति ने तब कोई प्रतिक्रिया नहीं की, लेकिन चार दिन बाद उसने सुषमा को उसके माता-पिता के घर छोड़ दिया और फिर कभी नहीं लौटा। सुषमा ने कहा, ‘जब मेरे हाथों में मेंहदी लगी ही हुई थी, तभी मेरे पति ने मुझे छोड़ दिया। ‘ छह साल बाद, जब वह 28 साल की थी तो वह एक और आदमी से मिली और बाद में उसके साथ उसे एक बेटा भी हुआ। उसके दूसरे पति ने उसे 2010 में तलाक दे दिया। सुषमा ने बताया कि उनका बेटा कभी उनके बहुत करीब नहीं रहा क्योंकि उसकी दादी ही हमेशा से उसकी देखभाल करती थीं। जब सुषमा छोटी थीं, उसके अब-मर चुके चाचा उसे कई बार अदालत में ले गए, लेकिन वह अपने बयान से मुकर गई. इसका कारण पूछे जाने पर उसने कहा, ‘नफीस और गिरोह के कई लोग उसी इलाके में रहते हैं जहां मेरी बहनें रहती हैं। मैं उन्हीं गलियों से गुजरता थी. उन्होंने मुझे धमकी दी थी.’ जब दरगाह पुलिस स्टेशन के एक पुलिसकर्मी ने 2020 में सुषमा को खोज निकला और उसे अदालत का समन सौंपा, तो वह गवाही देने के लिए तैयार हो गईं. वह घबराई हुई थीं, लेकिन जब वह पुलिसकर्मी उसके साथ अदालत में गया तो वह आश्वस्त महसूस करने लगी. वह कहती हैं, ‘सौभाग्य से, 2020 में, नफीस और बाकी लोगों को मेरी सुनवाई के बारे में पता नहीं था.’
पीड़िताओं के लिए, इसके बाद सामने आने वाल नतीजा बड़ा कष्टदायक था, खासकर उन कुछ लोगों के लिए जिन्होंने अदालत में गवाही देने का फैसला किया था. कई महिलाओं ने अपनी गवाहियां वापस ले लीं और इस बात की पूरी संभावना है कि कुछ बातें कभी सामने नहीं आईं, लेकिन घटनाओं की ज्ञात समयरेखा 1990 में शुरू होती है। ऐसी ही एक पीड़िता हैं कृष्णाबाला, जिसके बयानों ने कई लोगों की सजाओं में योगदान दिया। राजस्थान उच्च न्यायालय के 2001 के फैसले में कहा गया है कि उसने अदालत में फारूक, इशरत अली, शम्सुद्दीन उर्फ माराडोना और पुत्तन की पहचान की। यह उसकी इस गवाही का भी विवरण देता है कि कैसे इन लोगों के साथ-साथ सुहैल गनी और नफीस द्वारा उसका सामूहिक बलात्कार और ब्लैकमेल किया गया था। फिर, 2005 में, कृष्णबाला अचानक गायब हो गईं। दलबीर ने कहा, ‘मैं इस बात से परेशान हूं कि कृष्णबाला का पता लगाया जाना अभी बाकी है। वह सभी चश्मदीद गवाहों में सबसे मजबूत है और कई लोगों को सजा दिलवा सकती है। ‘लेकिन, अभी भी उम्मीद बाकी है। तीन मुकदमों में अपने बयान से मुकरने वाली पीड़िता सुषमा ने 2020 में फैसला किया कि वह आखिरकार अदालत में अपनी बात रखेगी. वह अभी भी अजमेर में ही एक संकरी गली के सामने बने एक छोटे से घर में रहती है।
सुषमा का घर छोटा है लेकिन रंग-बिरंगी तस्वीरों और दिखावटी साज सज्जा के सामानों से सजाया गया है। हरे रंग की फ्लोरल प्रिंटेड (फूलदार छापे) वाली सलवार-कमीज पहने और अपने बालों को एक कामकाजी महिला की तरह जूड़े में बांधे हुए, इस 50 वर्षीय महिला ने कहा कि वह अपने सदमे को दबाने की कोशिश करने में बिताये गए कई सालों के बाद इस बारे में बात करने के लिए तैयार है। सुषमा बलात्कारी चिश्ती गिरोह के शिकंजे में आने की कहानी बताती है। इस गैंग से उसका संपर्क सूत्र (लिंक) कैलाश सोनी नाम का एक परिचित था।वह उसे फुसलाकर एक सुनसान इमारत में ले गया, उसके साथ बलात्कार किया और फिर सात या आठ अन्य मर्दों को भी उसका यौन शोषण करने के लिए बुलाया , सुषमा उस वक्त महज 18 साल की थीं। उन्होंने मेरे साथ क्या किया है। उन्होंने बारी-बारी से मेरा रेप किया. उनमें से एक मेरे साथ रेप करता, जबकि दूसरा अपनी बारी का इंतजार करते हुए तस्वीरें खींचता।
सुषमा की नग्न तस्वीरें और साथ ही उस जीर्ण-शीर्ण इमारत की तस्वीरें उस मुक़दमे में पेश किए गए सबूतों का हिस्सा थीं। सुषमा ने कहा, ‘मेरे साथ यह सब करने के बाद, नफीस ने मुझे 200 रुपये दिए और मुझे कुछ लिपस्टिक और पाउडर खरीदने के लिए कहा। उसने कहा कि ब्लैकमेल वाली तस्वीरों के बारे में सोचकर वह चिंतित हो जाती है और उसने हमें बार-बार यह आश्वस्त करने के लिए कहा कि उसके चेहरे की तस्वीर प्रकाशित नहीं की जाएगी। सुषमा ने बताया ‘मेरी दो भतीजियां हैं. वे अभी भी नहीं जानते कि मेरे साथ क्या हुआ था। सुषमा उन कुछ एक पीड़िताओं में एक थीं, जिनकी 1992 में चिकित्सकीय जांच की गई थी और उससे गवाही की उम्मीद की जा रही थी, लेकिन इस बीच उसका खुद के जीवन में जबर्दस्त उलट-पुलट मची थी। उसने कहा, ‘मैं गर्भवती हो गई था. मेरी मां ने गर्भपात करवाने के लिए सब कुछ करने की कोशिश की, लेकिन वो कहते हैं ना की हराम का बच्चा कभी गिरता नहीं तो ये भी नहीं गिरा। हालांकि, वह मृत ही पैदा हुआ।
सुषमा ने आगे कहा, एक साल बाद एक रिक्शा वाले ने उसके साथ फिर बलात्कार किया और उसे 25 दिनों तक अपने घर में बंदी बनाकर रखा। वह फिर से गर्भवती हुई और इस बार उसने एक बच्चे को जन्म दिया जिसे एक दूर के रिश्तेदार ने गोद ले लिया था। सुषमा ने बताया, ‘उन्होंने उसे दो या तीन महीने तक रखा और फिर वह भी मर गया। अब तक सुषमा का मानसिक स्वास्थ्य टूट की कगार पर था और वह घंटों इधर-उधर घूमती हुई मस्जिदों और मंदिरों में बैठी रहती थी. उसका परिवार उसे ओझा-गुनी के पास, और यहां तक कि इलेक्ट्रोकोनवल्सी थेरेपी (बिजली के झटके) के लिए भी, ले गया, लेकिन इन सब ने उसकी ज्यादा कुछ मदद नहीं की उसका जीवन नरक हो गया है।
जब दलबीर सिंह ने पहली बार अजमेर बलात्कार कांड के बारे में सुना था, तो वह भरतपुर के एक छोटे से गांव में बड़े होते हुए एक छोटे से लड़के थे। उन्होंने कहा, ‘हर कोई इसके बारे में बात करता था,’ और इसलिए यह उनकी स्मृति में अटक सा गया। वह 2005 में राजस्थान पुलिस में शामिल हुए, लेकिन जब तक कि 2020 में उन्हें और अधिक पीड़िताओं तथा गवाहों को लाने में मदद करने के लिए एक फोन कॉल नहीं आया था तब तक उन्हें इस बात का इल्म हीं नहीं था कि यह मामला अभी खत्म नहीं हुआ है। उन्होंने कहा, ‘मैं इस बात से स्तब्ध था कि इस मामले में अभी भी सुनवाई चल रही थी… मुझे इसके बारे में बहुत गुस्सा आता है, हालांकि मुझे अपना काम करने का सौभाग्य मिला है। इस मामले में अपनी जिम्मेदारी को एक अन्य पुलिसकर्मी को सौंपने वाले दलबीर ने कहा कि उन्होंने जो कुछ हासिल किया उस पर उन्हें गर्व है। उन्होंने कहा, ‘पिछले 14 साल से पुलिस सिर्फ 58 चश्मदीदों को ही ला सकी है. लेकिन इस कोविड काल में, मैं कई पीड़ितों सहित 40 और चश्मदीदों को सामने लाया.’
हालांकि, ऐसे भी कुछ क्षण थे जब यह कार्य दलबीर को अनुमान से अधिक कठिन लगा था। वे बताते हैं, ‘एक मामले में, पीड़िता की मां ने मुझे उससे बात करने से भी मना कर दिया था। मुझे मां के कॉल रिकॉर्ड तक पहुंचने के लिए अदालत का आदेश लेना पड़ा और तब मैं बेटी तक पहुंचने में कामयाब रहा। जब मैंने फोन किया तो वह बहुत गुस्से में थी। उसने पूछा, ‘इतने सालों बाद क्यों?’ (गवाही देने के लिए) उसकी सहमति लेने के लिए दर्जनों कॉल और फिर काउंसलिंग का सहारा लिया गया.’ एक बार जब उन्होंने एक पीड़िता के पिता को फोन किया, तो उन बुजुर्ग व्यक्ति ने कहा: ‘हमें इससे कोई लेना-देना नहीं है. वह अब नहीं रही.’
अभियोजन पक्ष के वकील वीरेंद्र सिंह राठौड़ इन पीड़िताओं की हताशा को अच्छी तरह समझते हैं और मानते हैं कि न्यायपालिका, मीडिया और प्रशासन ने उन्हें निराश किया है। उन्होंने सवाल किया, ‘वे दादी और नानी बन गई हैं. क्या हम उन्हें फोन करते रहेंगे और पूछते रहेंगे कि क्या हुआ था?’ फिर भी, ऐसे भी समय आता हैं जब गवाहों को पकड़ने का प्रयास इतना निरर्थक भी नहीं लगता.