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राजनीति को जनता तक ले गए तिलक

राजनीति की सफलता के लिए वे शिक्षा को आवश्यक मानते थे। सरदार विट्ठलभाई पटेल के शब्दों में, “लोकमान्य तिलक का व्यक्तित्व महान् था। उनमें राजनीतिक आदर्शवाद और यथार्थवाद का अद्भुत समन्वय था। उनमें पैनी सूझ-बूझ,विशाल बोद्धिक क्षमता तथा गहन विद्वता थी। राजनीति को आराम कुर्सी वाले राजनीतिज्ञों के कमरे से जनता तक ले जाने का श्रेय तिलक को प्राप्त है।” तिलक धार्मिक व आदर्श शिक्षा पक्षधर थे। वे मातृभाषा को शिक्षा का माध्यम बनाना चाहते थे।
प्रशासन सम्बन्धी तिलक की धारणा लोकतान्त्रिक थी। उनका कहना था कि प्रशासकीय निकायों के समस्त अधिकारियों को जनता के प्रति उत्तरदायी होना चाहिए। तिलक ने यह भी बताया कि किन उपायों से हम स्वराज्य प्राप्त कर सकते हैं। स्वराज्य को एक नैतिक कर्तव्य मानते हुए एक बार उन्होंने कहा था कि “स्वराज्य एक अधिकार ही नहीं वरन् एक धम भा ह उनके स्वराज्य प्राप्ति के साधन भी स्वराज्य की धारणा के समान ही शाश्वत सत्य पर आधारित हैं। उनका कहना था कि “स्वराज्य दिया नहीं जाता, बल्कि प्राप्त किया जाता है।”
वे उदारवादियों की याचना, प्रार्थना आदि में विश्वास नहीं करते थे। उनका कहना था कि “स्वराज्य आज तक किसी विदेशी सत्ता द्वारा किसी अधीन राज्य को नहीं दिया गया है, इसका गवाह इतिहास है। जितने राष्ट्रों ने स्वराज्य प्राप्त किया है, उन्होंने अपने प्रयत्नों से ही प्राप्त किया है। याचिका की पद्धति को संघर्ष की पद्धति में बदलकर ही किसी राष्ट्र को आगे बढ़ने का अवसर मिल सकता है। यदि किसी जाति में संघर्ष करने की क्षमता नहीं है,तब निश्चित ही वह जाति पिछड़ी जाति है।” स्वराज्य के लिए तिलक क्रियात्मक उपायों को अपनाने पर बल देते हैं । इनके साधन निम्नलिखित हैं
(A ) राष्ट्रीय शिक्षा-
राष्ट्रीय शिक्षा उनके कार्यक्रम का मुख्य अंग था। उन्होंने पूना में ‘न्यू इंग्लिश स्कूल’ तथा ‘फर्ग्युसन कॉलेज’ की स्थापना की। तत्कालीन शिक्षा आयोग के अध्यक्ष डब्ल्यू. हण्टर ने ‘न्यू इंग्लिश स्कूल के प्रति अपने विचार प्रकट करते हुए कहा था, “समस्त भारत में मैंने इस प्रकार की एक भी संस्था अभी तक नहीं देखी जिसकी इसके साथ तुलना की जा सके । यद्यपि इस संस्था को सरकार कोई सहायता नहीं देती है, तथापि वह न केवल सरकारी हाईस्कूलों से प्रतिद्वन्द्विता कर सकती है, अपितु अन्य देशों के स्कूलों से भी जीत सकती है।” शिक्षा प्रसार के लिए उन्होंने ‘दक्षिण शिक्षा समाज’ (Deccan Education Society) की भी स्थापना की।
तिलक निम्न उद्देश्यों के कारण राष्ट्रीय शिक्षा को प्रभावपूर्ण बनाना चाहते
(i) शिक्षा भारतीयों के द्वारा व भारतीयों के लिए हो।
(ii) जनता को सस्ती अंग्रेजी शिक्षा प्रदान करना।
(iii) विद्यार्थियों को एक नवीन शिक्षा प्रणाली से शिक्षित करना।
(iv) राष्ट्रीय शिक्षा के द्वारा कुछ ऐसे युवकों को शिक्षित करना जिनके अन्दर राष्ट्रीय भावना कूट-कूटकर भरी हुई हो तथा जो स्वयंसेवक का कार्य सुगमतापूर्वक कर सकें। तिलक धर्मनिरपेक्ष शिक्षा को ही पूर्ण न मानकर धार्मिक व आदर्श शिक्षा पक्षधर थे। वे मातृभाषा को शिक्षा का माध्यम बनाना चाहते थे। राजनीति की सफलता के लिए वे शिक्षा को आवश्यक मानते थे।


(B) स्वदेशी आन्दोलन –
उदारवादी नेता दादाभाई नौरोजी रानाले, देशमुख, स्वामी दयानन्द सरस्वती आदि स्वदेशी भावना का प्रया तिलक ने महाराष्ट्र के कोने-कोने में स्वदेशी आन्दोलन द्वारा राष्ट्रवादी विचारधामी फैलाया।
स्वदेशी आन्दोलन का अर्थ था- देश की बनी वस्तुओं का प्रयोग । उनहोंने स्वदेशी शिक्षा स्वदेशी विचार तथा स्वदेशी जीवन-पद्धति आदि सभी क्षेत्रों में इसका पयोग किया। तिलक ने स्वदेशी आन्दोलन में विदेशी बहिष्कार भी जोड दिया। स्वदेशी वस्तुओं का प्रयोग किया जाए और विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार किया जाए-यह नारा तिलक ने दिया। उसके साथ तिलक ने कहा कि हमें अपने धर्म संस्कृति, भाषा और सभ्यता को पश्चिम से श्रेष्ठ समझना चाहिए और अपनी संस्कृति को अधिक महत्त्व देना चाहिए । उदारवादी पाश्चात्य भाषा और संस्कृति को अपनाने के पक्ष में थे, जिनका तिलक ने घोर विरोध किया। तिलक ने अनेक विद्यालय खोले और चन्दा इकट्ठा कर नये उद्योग-धन्धे भी प्रारम्भ कराए। तिलक बहिष्कार द्वारा ब्रटिश शासन पर दबाव डालकर जनता की मांगें मनवाने के पक्ष में भी थे। तिलक वदेशी को अपनाने और विदेशी का बहिष्कार करने को एक सशक्त हथियार मानते थे। वे अपनी फौज भेजकर अंग्रेजों की सहायता करने के भी विरोधी थे। तिलक के विदेशी बहिष्कार को अपनाकर ही गांधीजी ने असहयोग आन्दोलन चलाया। यह असहयोग तिलक के बहिष्कार का ही नवीन संस्करण था।


तिलक के सामाजिक विचार
प्राय: आलोचकों द्वारा यह आक्षेप लगाया जाता है कि तिलक सामाजिक जीवन में सुधारों के विरोधी थे। वास्तव में तिलक समाज-सधार के विरोधी नहीं थे, वरन् समाज-सुधार के सम्बन्ध में उनका अपना एक विशिष्ट दृष्टिकोण था,जिसे निम्न प्रकार स्पष्ट कर सकते हैं
(1) तिलक समाज – सुधार के विरोधी नहीं थे. अपित वे सरकारी कानून बनाकर समाज-सुधार करने की पद्धति का विरोध करते थे। वे सामाजिक सुधारों को उचित सामाजिक शिक्षण के माध्यम से क्रियान्वित कराना चाहते थे।
(2) उनका विचार था कि समाज-सधार का कार्य धीरे-धीरे और व्यक्तियों को मनोभावनाओं में परिवर्तन करते हए ही सम्भव है। समाज-सधार थोपे नहीं जा सकत, यह कार्य तो शिक्षा की प्रगति के साथ धीरे-धीरे सम्भव है।
(3) तिलक के अनुसार समाज-सधार के कार्य में शक्ति व्यय न करके पहले समर्ण शक्ति राजनीतिक स्वतन्त्रता प्राप्त करने में लगा दी जाए। एसा – समाज-सुधार करना सरल होगा।
(4) तिलक जाति – पाति और अस्पश्यता में विश्वास नहीं करते थे। उन्होंन गणेश उत्सव में निम्न जाति के लोगों को ऊंची जाति के लोगों के साथ अपनी गणेश प्रतिमाएं लेकर चलने की अनुमति दी। उनके अनुसार अस्पृश्यता को किसी भी नतिक और आध्यात्मिक आधार पर उचित नहीं ठहराया जा सकता,अतः इसका अन्त होना चाहिए।
(5) उन्होंने बाल – विवाह तथा बहुपत्नी विवाह का भी विरोध किया।
स्पष्ट है कि बाल गंगाधर तिलक राजनीति में क्रान्तिकारी,किन्तु सामाजिक सुधारों के क्षेत्र में अनुदार थे। वे आधुनिक भारत के निर्माता थे। वे उग्र थे, परन्तु हिंसक नहीं। वे राष्ट्रभक्त एवं देशभक्त थे, परन्तु उदारवादियों की तरह राजनीतिक भिखारी नहीं। उनमें राजनीतिक आदर्शवाद और यथार्थवाद का अद्भुत समन्वय था। उनमें पैनी सूझ-बूझ,विशाल बोद्धिक क्षमता तथा गहन विद्वता थी। विट्ठलभाई पटेल के शब्दों में, “लोकमान्य तिलक का व्यक्तित्व महान् था। राजनीति को आराम कुर्सी वाले राजनीतिज्ञों के कमरे से जनता तक ले जाने का श्रेय तिलक को प्राप्त है।”

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