कन्वर्जन के लिए १८७१ से अंग्रेजों ने वनवासियों की पहचान हिन्दुओं से अलग की
राजेश झा
वनवासियों की अलग पहचान कायम करके हिन्दुओं को कमजोर करने और कन्वर्जन को बढ़ावा देने का काम अंग्रेजों ने १८७१ में शुरू किया था। उनके विभेदक कार्यों का प्रमाण यह है कि सरकारी रेकॉर्ड में वनवासियों को सबसे पहले उन्होने ‘आदिवासी’ कहा फिर ‘जीववादी’ और अंत में ‘ट्रायबल’। उपलब्ध रेकॉर्ड के अनुसार अंग्रेजों ने वनवासियों को हिन्दू से अलग ‘आदिवासी धर्म’ की मान्यता दी।स्वतंत्रता के बाद पहली बार जब जनगणना १९५१ में हुई तो वनवासियों को अंग्रेजों के द्वारा दिया गया धर्म कोड हटाकर उसे शेड्यूल ट्राइब कहते हुए उनके धर्म कॉलम में ST कोड दिया गया इसके बाद जब १९६१ में जनगणना हुई तो वनवासियों का धर्म कोड समाप्त कर दिया गया। इससे वनवासियों का कन्वर्जन आसान हो गया और सरकारी सुविधाएं भी उनको जारी रहीं। इसका दुष्प्रभाव यह है कि कालांतर में विलक्षण रविदास जैसे बहुजन समाज के विचारक , वनवासियों के साथ -साथ वंचितों व पिछड़ों को भी हिन्दू नहीं मानते हैं। इन जैसों के कारण भी बौद्ध तथा नवबौद्ध स्वयं को हिन्दू नहीं मानते। यह न केवल हिन्दुओं बल्कि इसके उप -अंगों जैसे वनवासी , दलित , बौद्ध , नवबौद्ध के लिए भी बहुत कष्टकर स्थिति पैदा करनेवाला है। इससे सामाजिक संरचना निर्बल होती है और असुरक्षा की भावना से कन्वर्जन का मार्ग प्रशस्त होता है। अंततः इसका दुष्प्रभाव देश पर भी पड़ता है।
वनवासियों को ‘आदिवासी’ कहना ही हिन्दू समाज में विभाजन के बीज बोना है। इसका परिणाम है कि वृहद झारखण्ड जनाधिकार मंच (झारखंड) के केंद्रीय अध्यक्ष और अखिल भारतीय आदिवासी विकास परिषद (झारखंड) के प्रदेश संयुक्त सचिव बिरसा सोय, सामाजिक कार्यकर्ता जेम्स हेरेंज ,खोरठा साहित्यकार व व्याख्याता दिनेश दिनमणी , सिद्धो-कान्हो विश्वविद्यालय की कुलपति सोना झरिया मिंज ,पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता दयामनी बारला ,गढ़वा के सामाजिक कार्यकर्ता व आदिम जनजाति समुदाय के मानिकचंद कोरवा ,बहुजन समाज के विचारक विलक्षण रविदास , डॉ. शान्ति खलखो जैसे प्रबुद्ध और प्रभावशाली वनवासी जब वनवासियों को ‘आदिवासी’ के रूप में सम्बोधित करते हैं और उनको ‘ हिन्दू नहीं ‘ मानते हैं तो सर्वोच्च न्यायालय भी अजीबोगरीब निर्णय देते हुए कहता है कि ‘ आदिवासी हिन्दू नहीं हैं ‘ और अधिसंख्यक हिन्दुओं को बुरा नहीं लगता जबकि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 366 (25) की भाषा- परिभाषा के अर्थों में अनुसूचित जनजाति के सदस्य/नागरिक ‘हिन्दू’ माने जाते हैं।होना तो यह चाहिए कि हिन्दुओं को एकजुट होकर सर्वोच्च न्यायालय पर दवाब डालना चाहिए था कि वह अपने निर्णयों में सुधार करे। सर्वोच्च न्यायालय की इसी त्रुटिपूर्ण व्यवस्था के कारण ईसाई मिशनरियां वनवासी समाज में विभेद डालने में सफल हो जाती हैं।
किसी भी देश का सर्वोच्च न्यायालय जब किसी विवाद पर कोई विवेचना देता है तो उसको कानून के समकक्ष माना जाता है। इसलिए भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने ‘ सूरजमणि स्टेला कुजूर बनाम दुर्गा चरण हांसदा विवाद’ और ‘हिमावती देवी बनाम शेट्टी गंगाधर स्वामी’ विवाद में यह व्यवस्था देकर कि वे (वनवासी) हिन्दू विवाह अधिनियम से संचालित नहीं किये जा सकते – ईसाई मिशनरियों और हिंदुद्रोही शक्तियों को वह अवसर सुलभ करा दिया कि भोले -भाले वनवासी समाज को बरगला कर जनसंख्या सूची में भी उनसे लिखवा देते हैं कि वनवासी हिन्दू नहीं हैं।समाजसेवी कौशल्या मुंडा के अनुसार ‘ यह विवाद पैदा करने की कोशिश की जाती रही है कि आदिवासियों की धार्मिक आस्थाएं अलग-अलग हैं।कोई सरना है, कोई ईसाई तो कोई हिंदू धर्म को मानता है जबकि व्यवहार में हम देखते हैं कि आदिवासियों का एक समूह इस्लाम, जैन और बौद्ध मतावलंबी भी है।इस कारण उनके लिए अलग धर्म कोड की ज़रूरत नहीं है।”