भारत में अनेक समाज सुधारको का उदय हुआ। इन समाज सुधारको ने उस वक्त समाज में फैली कुरीतियों का विरोध किया और उन्हे समाप्त करने हेतु संघर्ष किया। वर्तमान में भारत में जो राज्य है, उनकी दृष्टि से देखा जाए तो बंगाल और महाराष्ट्र यह ऐसे दो राज्य है जो समाज सुधारों में अग्रणी थे। महाराष्ट्र में समाज सुधार का काम जोतिराव फुले और उनकी पत्नी सवित्रीबाई से आरंभ हुआ। ऊनके कार्य से ही प्रेरित हो कर महाराष्ट्र और भारत के अन्य जगहों में लोगों ने समाज सुधार का काम हाथ में लिया। ऐसे समाज सुधारकों की सूची में एक नाम आता है जो महाराष्ट्र के कोल्हापूर संस्थान के राजा भी थे जिनका नाम था छत्रपती शाहू महाराज। उनके किए कामों के फल स्वरूप आज हम उन्हे एक राजा के रूप में कम लेकिन एक समाज सुधारक के रूप में ज्यादा जानते है।
छत्रपती शाहू महाराज का जन्म 26 जुलाई 1874 को हुआ था। उनका वास्तविक नाम यशवंतराव घाटगे था। उनके पिताजी का नाम आप्पासाहेब घाटगे और माता का नाम राधबाई था। शाहू महाराज जब बारह वर्ष के थे तब उनके पिता का देहांत हो गया। सन 1884 में कोल्हापूर के महाराज शिवाजी (चतुर्थ) की पत्नी आनंदीबाई जी ने उन्हे गोद लिया। जब वे राजा के रूप में गद्दी पर बैठे तो उनका नाम छत्रपती शाहू महाराज रखा गया।
छत्रपती शाहू जब गद्दी पर बैठे तब समाज में जातिपाति के आधार पर किया जाने वाला भेदभाव और तिरस्कार अपने चरम पर था। छत्रपती शाहू महाराजने इस विषय में सुधार लाने की सोची। इसी बीच हुए एक प्रसंग ने उन्हे इस विषय में तीव्रता से काम करने के लिए प्रेरित किया। छत्रपती शाहू महाराज प्रतिदिन पंचगंगा नदी के घाटों पर स्नान करने जाते थे। वह स्नान करते समय नारायण भट्ट नामक ब्राह्मण वेदों के मंत्रों का उच्चारण न कर के पुरानो में लिखे मंत्रों का उच्चारण करते थे।
राजाराम शास्त्री भागवत ने छत्रपती शाहू महाराज को इस बात की कल्पना दी। जब नारायण भट्ट को इसका कारण पूछा गया तो उन्होंने बताया की शाहू महाराज राजा है लेकिन वह शूद्र होने के कारण उनके लिए वेदों के मंत्र नहीं पढे जा सकते। जातिपाति का यह भेदभाव देख कर छत्रपती शाहू महाराज व्यथित हुए। उन्होंने तत्काल इस विषय में कार्य आगे बढ़ाते हुए अपने राज्य में पंडित के पद पर अन्य जाति से आने वाले लोगों की नियुक्ति करना शुरू किया। उन्होंने एक मराठा समाज के व्यक्ति को पंडित घोषित कर उसे ‘क्षात्र जगद्गुरु’ की उपाधि दी। उनके इस निर्णय की समाज एक विशेष से बहोत आलोचना हुई। यही नहीं लोकमान्य तिलक जैसे नेताओं ने भी इस निर्णय पर अपना विरोध जताया। यह पूरा घटनाक्रम ‘वेदोक्त विवाद’ के नाम से बाद में प्रसिद्ध हुआ।
छत्रपती शाहू महाराज एक दूरदर्शी नेता थे। सन 1894 से 1922 तक अपने राज्य में उन्होंने अनेक विषयों में सुधारनाओं की पहल की। वह शिक्षा को जन-जन तक पहुँचाना चाहते थे। परंतु समाज में व्याप्त अस्पृश्यता के कारण कोई भी एक दूसरे के साथ शिक्षा ग्रहण नहीं करना चाहता था। पिछड़े वर्गों की सहायता के लिए उन्होंने सभी सरकारी कार्यालयों में 50 प्रतिशत आरक्षण की घोषणा की। इस के साथ उन्होंने पिछड़े वर्गों से आने वाले छात्रों के लिए छात्रवृत्ति की भी घोषणा की।
जब उनको इस विषय के बार में पुछा गया तो उन्होंने कहा की अगर आपके पास कुछ घोड़े ताकतवर और कुछ कमजोर हो तो क्या आप उनकी आवश्यकता अनुसार उन्हे अलग खान-पान नहीं देंगे? सभी घोड़े सशक्त होने पर ही दौड़ न्यायसंगत मानी जाएगी। तब तक हमे उन्हें उनकी आवश्यकता के अनुसार ही उनका ध्यान रखना पड़ेगा।”
उन्होंने कई जगहों पर छात्रावास बनाए और अपने राज्यकोश से उनका खर्च उठाया। 19 अप्रैल सन 1901 में उन्होंने मराठा स्टूडेंट इंस्टिट्यूट की स्थापना की और उसके निर्माण कार्य के लिए पैसों की मदद भी की। उन्होंने अन्य जातियों के विद्यार्थियों के लिए छात्रावास खोले। सन 1901 में उन्होंने जैन, सन 1906 में मुस्लिम, सन 1908 में अछूतों के लिए मिस क्लार्क हॉस्टल, सन 1917 में लिंगायत के समाज के लिए विरशैवा हॉस्टल और सन 1921 में संत नामदेव हॉस्टल खोले। इसके साथ-साथ उन्होंने पांचाल, दैवज्ञ, नाभिक, शिंपी और धोर -चंभार समुदायों के लिए भी हॉस्टल खोलें। इन हॉस्टल/छात्रावासों में पढ़ने वाले सभी विद्यार्थियों की सुविधा के लिए उन्होंने इन सभी छात्रावासों का खर्च उठाया।
छत्रपती शाहू महाराज ने खियों की स्थिति सुधारने के लिए भी क़दम उठायें। उन्होंने उनकी शिक्षा का महत्त्व जाना और ऊनके लिए स्कूल भी खुलवाए। देवदासी जैसी प्रथा को भी उन्होंने बंद करवाया। सन 1917 में उन्होंने विधवा विवाह को मान्यता दी और बालविवाह जैसी प्रथा भी बंद करने के लिए प्रयास किए।
छत्रपती शाहू महाराज डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर के कार्य के प्रशंसक थे। डॉ. अंबेडकर और शाहू महराज सन 1927 में एक दूसरे के संपर्क में आयें। उनके अस्पृश्यता निर्मूलन से संबंधित क्रांतिकारी विचारों वह प्रभावित थे।। सन 1917 से 1921 तक उन्होंने समाज से जातिआधारित भेदभाव हटाने में साथ-साथ काम किया। 31 जनवरी 1921 को जब बाबासाहेब ने अपना वर्तमान पत्र मुकनायक शुरू किया तब शाहू महाराज जी ने सहायता स्वरूप 2500 दिए थे। डॉ. अंबेडकर और छत्रपती शाहू महाराज ने सन 1922 उनकी मृत्यु तक साथ में काम किया।
21 मार्च 1922 में माणगाव में हुई बहिष्कृत वर्ग की परिषद में शाहू महाराज ने एक तरह से अंबेडकर जी बहुजन समाज के तराणहर घोषित किया। उस परिषद में बहुजन समाज को सम्बोधित करते हुए छत्रपती शाहू महाराज ने कहा की “आप लोगों को अंबेडकर के रूप में अपना तारणहार मिल गया है। मेरा विश्वास है कि जल्द ही वह आपको सभी बंधनों से मुक्त करेंगे। सिर्फ़ यहीं नहीं वह जल्द ही भारत के पटल पर एक अग्रणी नेता के रूप में उभरेंगे।”
अपनी प्रजा को आत्मनिर्भर बनाने वाली परियोजनाएँ उन्होंने कोल्हापूर संस्थान में शुरू की। सूत कताई का कारखाना शुरू करने के साथ-साथ खेती के लिए उन्होंने सहकार के तत्वों पर आधारित संस्थाएँ शुरू की और व्यापार में मध्यस्थों का प्रभाव काम करने पर जोर दिया। खेती के लिए लगने वाली सामग्री खरीदने हेतु धन राशि की मदत करने की भी व्यवस्था उन्होंने की थी। खेती से सम्बंधित नई तकनीक और फ़सल का उत्पादन बढ़ाने के लिए किसानों को शिक्षित करने के लिए किंग एडवर्ड अग्रीकल्चर इंस्टिट्यूट की भी स्थापना की। उन्होंने सन 1907 में राधानगरी बाँध की नींव रखी जो 1935 में पूरा हुआ। यह बाँध छत्रपती शाहू महाराज की दूरदर्शिता का एक उत्तम नमूना माना जाता है जिसने कोल्हापूर को सदा के लिए आत्मनिर्भर बना दिया।
छत्रपती शाहू महाराज कोल्हापूर संस्थान के राजा थे। वह अगर चाहते तो आराम की जिंदगी जी सकते थे। लेकिन जर्जर होती जा रही सामाजिक परिस्थितियों की तरफ़ ध्यान दे कर उनमें सुधार लाने के उनके प्रयासों ने उन्हे अपने समय के संस्थानिकों से अलग बनाया। छत्रपती शाहू महाराज का निस्वार्थ भाव और प्रवाह के विरूद्ध जा कर अपने काम को करने के उनके विचार आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणादायी है।
लेखक :- ऋषिकेश भालेराव