नारी अस्तित्व के लिए संघर्ष – सातवीं कड़ी
कांपते हाथों से बोतल का ढक्कन निकाला। और …. बड़ी हिम्मत के साथ उस बोतल को मुंह के पास लेकर गई। बाईसाहेब और उनके साथ मौजूद पादरीबाबा ने मुझसे पूछा कि ये अभक्ष्य पदार्थ तुम क्यों ले रही हो। उस स्थिति में मैं सिर्फ इतना ही बोल पाई कि ”मैं एक साथी के रूप में आई हूं। मुझे मेरा धर्म बदलना नहीं है।” इस पर पादरी ने कहा, ”तुम्हारा अंत निकट आ गया है। तुम प्रभु की शरण में जाओ। वो तुम्हें माफ करेंगे और मुक्ति प्रदान करेंगे।” मैं गर्दन हिलाकर नहीं बोल रही थी। वो कुछ तो बोल रहे थे। उन्होंने मेरा हाथ किसी किताब पर रख दिया। मैं पूरी ताकत के साथ अपने हाथ को झटक दिया। मैं अब मेरे ईश्वर के पास जा रही हूं, वही मेरा साथी है ……
सहेली
आनंदीबाई भगत
सूखे और गरीबी से परेशान मैं एक बदनसीब महिला। ना मुझे भीख मांगना आता है और न ही किसी के सामने अपनी झोली फैला सकती हूं। कुत्ते से भी बुरी हालत थी मेरी। मैं ऐसी असहाय स्थिति में भटक रही थी। मेरी अवस्था देखकर एक महिला को मुझ पर दया आई, पर ना तो मेरी कोई परिचित थी और न ही उनके साथ मेरा कोई संबंध था। उसने मुझसे कहा, चलो मेरे साथ मैं तुम्हें खाना खिलाती हूं। सच कहूं तो, मैं हिचकिचा रही थी। ऐसी किसी महिला के साथ जाने का मेरा मन नहीं हो रहा था, लेकिन उसकी आंखों में मुझे करूणा नजर आ रही थी। दिखने में वह किसी अच्छे घर की रहने वाली नजर आ रही थी। पेट की भूख ने मुझे अंदर से आवाज दी और मैं उसके साथ चल पड़ी।
उसके घर आने पर मैंने देखा कि मेरे जैसे कई लोग वहां पर थे। फिर उस महिला ने मुझे खाने के लिये दिया। फिर मेरा नाम पूछा। मैंने कहा, आनंदीबाई भगत। उस महिला का स्पर्श मुझे आश्वासन देने वाला महसूस हुआ। यह मेरी और पंडिता रमाबाईसाहेब की पहली मुलाकात थी। बाई का स्वभाव बहुत अच्छा था। उन्होंने न सिर्फ मुझे खाना खिलाया, बल्कि मेरी बाकी की सुविधाओं का भी ख्याल रखा। मेरी होशियारी देखकर मुझे पढ़ना-लिखना सिखाया। बाईसाहेब ने मुझे अंग्रेजी भी सिखाई। अब मैं उनके साथ गरीबों की सेवा करने लग गई। उनके स्कूल के काम में भी उनकी मदद करने लग गई।
उनकी बेटी मनोरमा मुझे मौसी कहकर बुलाने लग गई और मुझे भी उससे बहुत प्यार हो गया। बाईसाहेब ने मुझे हमेशा बराबरी का दर्जा दिया। लेकिन उनके और मेरे बीच का अंतर मुझे पता था। उनके जैसी पढ़ाई मेरी कहां से हो सकती थी। कोलकाता के लोगों ने उन्हें पंडिता और सरस्वती की पदवी दी थी। उनकी बुद्धिमत्ता ने मुझे बहुत प्रभावित किया था। मैं ही क्या, कोई भी उनसे प्रभावित हो सकता था। मेरी जैसी महिला की नजर से देखें, तो उनका काम बहुत बड़ा था।
उस आनंदीबाई भगत और पंडिता रमाबाईसाहेब के बीच का फर्क यहीं पर दिखता है। उनको मेरे जैसे कई लोगों का जीवन बदलना था। भारतीय स्त्री की परिस्थिति को बदलने का मानो बीड़ा ही उन्होंने उठाया था। उनका मानना था कि शिक्षा और चिकित्सीय सुविधा का निर्माण किये बिना स्त्रियों की स्थिति को बदला नहीं जा सकता है। इसकी शुरूआत करने के लिये उन्होंने खुद विदेश जाकर डॉक्टर की पढ़ाई करने का फैसला किया। ये सब मेरी जैसी महिला की कल्पना से परे था।
जल्दी ही मैं और बाईसाहेब मुंबई गये। यहां पर उन्होंने हंटर कमिशन के सामने नारी शिक्षा और महिला डॉक्टर की आवश्यकता जैसे अनेक विषयों पर अपने विचार रखे। उनके द्वारा सुझाये गये विचार और स्त्रियों के लिये महिला डॉक्टर की जरूरत की उनकी सलाह को खुद रानी एलिजाबेथ ने ध्यान में लिया। बाईसाहेब अपने काम का दायरा बढ़ाने के लिये भारतीय सीमा से बाहर भी अपने काम को फैलाने पर जोर देने लगी। अब अपने ही देश के लोगों ने उनपर धर्म बदलने का आरोप लगाना शुरू कर दिया। पश्चिमी देशों से मिल रहे भरपूर सहयोग के बावजूद बाईसाहेब क्रिश्चन धर्म को स्वीकार करने के पक्ष में नहीं थीं। उन्होंने बार-बार इस बात से इनकार किया था। इस तरह अपना धर्म छोड़कर किसी दूसरे धर्म को अपनाना कोई आसान काम होता है क्या? खुद ही अपने लोगों से दूरी कैसे बना सकते हैं। ये कैसे हो सकता है? मुझे ये सब बिल्कुल भी समझ में नहीं आता था और मेरा उससे कोई लेना-देना भी नहीं था। मुझे बस इतना पता था कि बाईसाहेब की वजह से ही मुझे एक अच्छा जीवन जीने को मिला था। इसलिये मुझसे जितना हो सकता था, मैं उनकी उतनी मदद करने के लिये तैयार थी।
1882 का साल बहुत आपा-धापी वाला रहा। रमाबाईसाहेब ने पक्का निर्णय कर लिया था कि डॉक्टर की पढ़ाई करने के लिये उन्हें इंग्लैंड जाना है। उनके इस निर्णय का पुणे के क्रिश्चन मिशनरी ने विरोध किया। सिस्टर सुपीरियर ऑफ मेरी होम और ऐसे अनेक यूरोपीय मिशनरी ने इस पर विचार किया। पर एक भी व्यक्ति मदद करे तो मानें। एक तरफ तो बहुत दया दिखाना और दूसरी तरफ पैर खींच देना। मुझे बाईसाहेब के जीवन की कशमकश समझ में आ रही थी। मुझे पता था कि उनका डॉक्टर होना कितना मायने रखता है। लेकिन इसके लिये उन्हें इंग्लैंड जाना था और वहां जाने का कोई मार्ग नजर नहीं आ रहा था। तब एक सिस्टर ने बताया कि इंग्लैंड में पढ़ाई करने जाना है, तो क्रिश्चन बन जाओ। उनमें से एक सिस्टर पर तो मुझे बहुत गुस्सा आया। उसने कहा कि बाईसाहेब अपनी दो साल की बेटी मनोरमा को अपने साथ इंग्लैंड लेकर नहीं जा सकतीं। ऐसा कैसे, इतनी छोटी बच्ची अपनी मां से दूर कैसे रह पायेगी, मुझे बहुत तकलीफ हो रही थी।
एक दिन एक पादरी बाबा आये। उन्होंने बाईसाहेब से कहा कि तुम इंग्लैंड मत जाओ। जब उन्हें लगा कि बाईसाहेब हार नहीं मान रहीं, तो उन्होंने कहा कि उनके इंग्लैंड जाने की कोई भी जिम्मेदारी वह नहीं लेंगे। बाईसाहेब को जाना है, तो जायें, लेकिन यदि वहां कुछ ऊंच-नीच होती है तो उसकी जबाबदारी खुद बाईसाहेब की होगी। अकेली औरत, छोटी सी बच्ची के साथ इतनी लंबी यात्रा अकेले कैसे करेगी और कितने दिन लगेंगे यह भी पता नहीं। उनके साथ जाने के लिये कोई भी तैयार नहीं था। मैंने सोचा कि मैं उनके साथ जाऊं क्या? मनोरमा को संभालना भी आसान हो जायेगा और उनको किसी का साथ भी मिल जायेगा। मेरे मन के विचार मेरे मन में ही थे। भारत के क्रिश्चन लोग तो ठीक हैं, लेकिन विदेशी लोगों से मुझे जरा डर लग रहा था। इसलिये मैं चुपचाप रह गई।
बाईसाहेब की भागमभाग जारी थी। उनके साथ जाने वाला कोई नहीं मिल रहा था। एक दिन उन्होंने मुझे खुद ही पूछा कि आनंदीबाई मेरे साथ इंग्लैंड चलोगी क्या? वह इतने नेक काम के लिये जा रही थीं, तो मैं उन्हें मना कैसे कर सकती थी। उन्होंने मुझ पर जो उपकार किये, उसे कैसे भूल जाती? फिर मैंने उन्हें अपने मन डर साफ-साफ बता दिया। मेरी बातें सुनकर वह खूब हंसीं, उन्होंने कहा कि ऐसे पागलों के जैसे मत सोचो। यहां के मिशनरी लोग जैसा सोच रहे हैं, वैसा ही नजरिया सारे यूरोपीय लोगों या सभी क्रिश्चन लोगों का हो, यह जरूरी नहीं। मैं भी तुम्हारी तरह एक हिन्दुस्तानी नारी ही हूं ना? सतकर्म के रास्ते में बाधायें तो आती ही हैं? हमें उन सभी बाधाओं को पार करना होता है।
आखिरकार मैं उनके साथ इंग्लैंड जाने के लिये राजी हो गई। मुझे भी स्कॉलरशिप मिली। और इस तरह से साल 1882 के अंत में पंडिता बाईसाहेब, मनोरमा और मैं एचएमएस बुखरा नाम के समुद्री जहाज से इंग्लैंड के लिये रवाना हो गये।
हमें ऑर्लोप डेक (जहाज का सबसे कम क्षेत्र वाला डेक) केबिन रहने के लिये दिया गया था। केबिन में छह बेड थे। उस केबिन में बाकी यूरोपीय लोगों ने रहने से इनकार कर दिया था, क्योंकि इसमें हम काले लोग यानी कि भारतीय रह रहे थे। उन्होंने मुझसे कहा भी कि ”यदि हमलोगों को छूकर गुजरी हुई हवा भी उन्हें छू लेगी, तो वो ‘मैले’ हो जायेंगे, इसी डर से कोई यूरोपीय लोग हमारे केबिन में रहने नहीं आ रहा।” शुरूआत में जहाज में मिलने वाली मिशनरी महिलायें, हमें भगवान ईशु के वचन सुनाया करती थीं। उनकी बातें बहुत प्यारी लगती थीं। धीरे-धीरे उन्होंने आग्रह करना शुरू कर दिया कि आप क्रिश्चन धर्म स्वीकार कर लो। मैंने ये सारी बातें बाईसाहेब को बताई। उस पर उन्होंने कहा कि हमें उनकी बातों पर ध्यान नहीं देना है। फिर किसी विदेशी महिला ने मुझे कहा कि इंग्लैंड में सिर्फ क्रिश्चन लोगों को ही प्रवेश दिया जाता है। फिर बाईसाहेब मेरी बातों पर ध्यान नहीं देने लगीं। उन्हें जहाज पर बड़े लोगों से बात करनी पड़ती थी। इसके अलावा, उनकी अपनी पढ़ाई-लिखाई भी चालू थी। मेरा समय मनोरमा को संभालने और उसे खेलाने में गुजरने लगा।
हम इंग्लैंड पहुंच गये। वहां पर सेंट मेरी होम में बाईसाहेब ने सबसे पहले अंग्रेजी भाषा की शिक्षा प्राप्त करनी शुरू की। यहां पर हम भारत से लाये गये सूखे पदार्थ, दूध, पाव इन सब पर ही गुजारा कर रहे थे। यहां पर सर्दियों का मौसम होने के कारण दही जमने में भी चार दिन लगते थे। लेकिन यहां की साफ-सफाई तारीफ के काबिल थी। मैंने ये सारी बातें भारत में भेजे गये अपने पत्र में भी लिखी।
अब 1983 का अगस्त महीना शुरू हो गया था। यहां की मिशनरी ने हमसे क्रिश्चन बनने का आग्रह करना शुरू कर दिया। यह मुक्ति का मार्ग है। अपने पापों से मुक्त होने के लिये प्रभु का संदेश स्वीकार करो, बगैरह-बगैरह। वो जो भी बोलते थे, वो मुझे बहुत ज्यादा समझ में नहीं आता था। मैंने अंग्रेजी सीखी थी, लेकिन उनका बोलने का तरीका मुझे थोड़ा अलग लगता था। मैंने बाईसाहेब के पास इसकी शिकायत की, तो उलटा वो ही मुझ पर गुस्सा हो गईं। मुझे उनका बोलना भी बहुत बुरा लगा। मैं उनकी खातिर ही अपना देश छोड़कर परदेश आई थी। मेरे पास न तो उनके जैसी विद्या थी और न ही धन, मैं क्या करूं।
हमारे बीच तकरार होने लग गई। शायद बाईसाहेब खुद भी यहां आकर असहाय हो गईं थी। मैंने उनसे कहा कि मैं यहां आपके साथ आई हूं ना? मुझे इन सब चीजों से डर लगता है। मुझे अपने गांव जाने दीजिये। मुझे कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा है। वो एकदम गुस्सा होकर बोलीं, ”यदि क्रिश्चन हो गई, तो इसका मतलब यह नहीं है कि आपका चमड़ी ही उतारकर ले जाते हैं?” मैंने भी अपना आपा खो दिया। मैंने उनपर हमला बोल दिया। उनका गला पकड़ लिया और जैसे मेरे शरीर की पूरी ताकत ही खत्म हो गई। वो भी डर गईं। मैं बगल के कमरे में चली गई। दरवाजा लगा लिया। खूब रोने लगी। कुल मिलाकर ये सारे हालात मुझे ठीक नहीं लग रहे थे। वह रविवार की सुबह थी। कुछ लोग बाईसाहेब से मिलने आये थे। मेरा रोना चालू था। अचानक मैं उठी और वह बोतल हाथ में ली। कांपते हाथों से बोतल का ढक्कन हटाया। और…. पूरी हिम्मत के साथ वह बोतल मुंह तक लेकर गई। बाईसाहेब और उनके साथ आये पादरी मुझसे पूछ रहे थे कि ये अभक्ष्य पदार्थ तुम क्यों पी रही हो। उस स्थिति में मैंने सिर्फ इतना ही कहा कि ‘मैं साथी बनकर आई हूं। मुझे मेरा धर्म नहीं बदलना है।” तब उस पादरी ने कहा कि, ”अब तुम्हारा अंतिम समय निकट आ गया है। तुम प्रभु की शरण में जाओ। वो तुम्हें माफ करेंगे और मुक्ति प्रदान करेंगे।’ मैं गर्दन हिलाकर इनकार कर रही थी। वो कुछ तो बोल रहे थे। उन्होंने मेरा हाथ किसी किताब पर रखा। मैंने पूरी ताकत से अपना हाथ खींच लिया। ”अब मैं अपने ईश्वर के पास जा रही हूं, वहीं मेरा साथी है…..”
Ref: Auld lang syne. Second series : my Indian friends
By Müller, F. Max (Friedrich Max), 1823-1900 Page 141