Opinion

नारी अस्तित्व के लिए संघर्ष – आठवीं कड़ी

आगे जाओ ऐसे कहकर तिलक गायब हो गए। कुछ पैसे नहीं थे, नाक के नथ के अलावा कुछ अलंकार नहीं था। ऐसे विपन्नावस्था में मैं नासिक रोड स्टेशन पर उतर गयी। कैसे तो करके भिकुताई के घर के दरवाजे पे जाकर कड़ी हो गयी।
भिकुताई मेरी राह देख रही थी।  
मुझे ऐसी अवस्था में देखकर उसे रोना आया।
‘मने, यह तेरी क्या हालात हो गयी है!’
ऐसे कहकर उसने मुझे जोर से पेट को लगाया।
सीता निकली वनवास को, और पीछे लगी विपत्ति,
ऐसी मेरी अवस्था।

ममता को लज्जा नहीं रहती। ….
लक्ष्मीबाई तिलक
आठवीं कड़ी

लक्ष्मीबाई तिलक का ‘स्मृतिचित्रे’ यह आत्मचरित्र मराठी सारस्वतों में अमर साहित्यकृती है। मैं इस पुस्तक की चहेती हूँ और लक्ष्मीबाई की भी। १९वी शती का यह पात्र काल के पटल पर उठकर दिखता है। नाम तो लक्ष्मीबाई, पर पैसों की कमी। लड़कपन में पिता जी के सोवळे (शुचि, पवित्रता, आदि का पालन करने की रूढ़ि) के कारन होनेवाले कष्ट, तरुण जीवन में न बताते हुए पति के ईसाई बन जाने के कारन होनेवाले कष्ट, वृद्धावस्था में पति के मृत्यु के पश्चात् जिस मिशनरी समूह का हर एक शब्द माना, उन्होंने ही बाहर देश में भेजा, इसलिए विपन्नावस्था आयी। ‘ममता को लज्जा नहीं रहती ‘…. वस्तुतः यह विधान लक्ष्मीबाई की लेखनी ने उनकी बहन भिकुताई के लिए इस्तेमाल किये है। पर ५ बरस लिए पति रेवरंड नारायण वामन तिलक के सिवा रहने के बाद लक्ष्मीबाई को हुई मानसिक यातनाएं, अपनी भूमिका पर अडा रहने वाला ईसाई पति, और दूसरी तरफ लक्ष्मीबाई को हाथ के फोड़ के समान सम्हालनेवाले परन्तु सनातनी हिन्दू, ऐसे ससुराल और मायके के दो ध्रुवों में लटकती लक्ष्मीबाई। एक स्त्री होते हुए मेरे जैसी पुरानी पीढ़ी के स्त्री को पसंद आ जाना स्वाभाविक है। सच में मैं उनकी जगह रहती तो क्या करती? लक्ष्मीबाई के शब्दों में ,

‘ममता को लज्जा नहीं रहती’…
 १८९४ का फरवरी महीना, हमारा निवास राजनांदगाव (अब के छत्तीसगढ़ राज्य में) में था। चारों ओर पुकार हो गयी थी की तिलक ईसाई बनेंगे। तिलक घर आने पर उन्हें पूछा की,
“क्या आप सच में ईसाई बनने वाले हो?”
“तुझे कौन बनाता है?”
“लोग”
“तूने लोगों से शादी की या मुझसे?”
“आपसे”
“तो मैं कहता हूँ वह सच है, या लोग कहते है वह?”  
“आप बताते हो वह”
“तो फिर मैं तुम्हें बताता हूँ की, मैं  ईसाई नहीं बनूँगा। “
इतना कह के तिलक बाहर गए। मैंने दरवाजा अंदर से बंद किया और बहुत रो पड़ी। भूत, भविष्य और वर्त्तमान इन तीनों के आंधी की वजह से रोना आ रहा था।  उस दिन मैंने मेरी पहली कविता लिखी, वह कविता मुझे अब भी स्मरण है,

म्हणे जातो सोडून नाथ माझा
अतां कवणाला पाहुं देव राजा
सर्वव्यापी सर्वज्ञ तूच आहे
सांग कोणाचे धरू तरी पाये
(नाथ कहते है, की छोड के जाता हूँ ,
अब किसे देखूं भगवान?
सर्वव्यापी सर्वज्ञ आप ही हो,
कृपया बताना की, किसके पैर पकडू?)

 अब हमारे यहाँ अतिथि, सम्बन्धियों की भीड़ लगने लगी। पैसे, संपत्ति देते हैं, आपको दत्तक लेते है, पर ईसाई नहीं होना ऐसे सब जी – जान से कहने लगे। तिलक ईसाई बनेंगे, ऐसी खबर मेरे मायके लगी। मेरे शालक मामासाहेब पेंडसे का पत्र आया, की आप मेरे पास आकर रहें। मैं तुम्हें जीवनभर खिलाऊंगा और दत्तू (हमारा लड़का) की शिक्षा का भी देखूंगा। आप मेरे यहाँ मांस मछली खाइये, चाहे जो भी हो पियें, मैं आपको जरा सी भी मना नहीं करूँगा। पर आप ईसाई मत बनियें।”

 श्रीमंत अप्पासाहेब बूटी की जगह जगह पर पेढ़ियां थी। उन हर एक ठिकानों पर तिलक के हलचल पर नजर रखने के लिए अप्पासाहेब से कहा गया। मुझे यह सब बताया और पैसे भी दिए। “अगर कुछ कम – ज्यादा लगे, तो हमें तुरंत तार भेजें। हम कुछ करके उन्हें रोकेंगे। उन पर कर्ज दिखाकर कारागार में भेजेंगे। पर ईसाई नहीं होने देंगे। आप कोई चिंता न करें।

 एक दिन तिलक ने मुझे कहा,
“आज मुझे दो मिशनरी मिले। उन्होंने अंग्रेजी में प्रार्थना की। ऐसी सुन्दर प्रार्थना मैंने जीवन में कभी भी नहीं अनुभव की थी। मुझे वह बहुत अच्छी लगी। “
तिलक बता रहे थे, पर मेरा उनकी तरफ ध्यान नहीं था। आगे क्या होगा, इसपर मेरा ध्यान था। थोड़े ही दिनों में तिलक मुंबई जाने निकले। मैंने पूछा की, “मुंबई क्यों जा रहे हो?” वे बोले की, “मुझे राजेसाहब के लिए घोड़े खरीदने है।”
अच्छाबुरा उनका उन्हें ही पता। पडोसी कहते थे, उन्हें मत जाने देना। वे ईसाई बनने जा रहे है। मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था। उन्हें अगर पूछे तो वे कह देते थे की, “तूने मुझसे शादी की है या लोगों से?” और जिन्हों ने मुझे ऐसे बताया, उनसे इनका झगड़ा हो जाता। तब मैं और कुछ बोली नहीं।

 फिर एक रामबान सुझाव आया, मैंने तिलक से कहा, की “आप दत्तू को लेकर जाइये।”
 “क्यों?”
 “ऐसेही। “
मेरा इरादा यह था की, लड़का साथ में होते हुए वे कैसे ईसाई बनेंगे? हाँ – नहीं करते करते दत्तू को साथ में ले जाने का पक्का हुआ और मैं निश्चिन्त हो गयी। तिलक ने रास्ते में ही नाशिक में उतर के दत्तू को पेंडसे के घर रखा और स्वयं आगे मुंबई गएँ। तब दत्तू की आयु केवल दो बरस की थी। वह मां – बाप के बिना कभी भी नहीं रहा था।

 आपत्तियां दरवाजे से आने लगी, तो बीमारियां भी खिड़की से आने लगी। जलालपुर में दत्तू गोवर से बीमार पड़ गया। सब चिंतित हो गए। पर उसके बीमारी की खबर उसके माता को भी नहीं थी और पिता को भी नहीं थीं। मैं हमेशा की तरह लंका की पार्वती बनकर राजनांदगांव में अकेली बैठी थी।

 तिलक के जाने के बाद पडोसी मेरे पास जमा हो गए। वे कहने लगे, क्या किया आपने। तिलक के साथ लड़के को क्यों भेजा? वह बड़ा थोड़ी ही है? उसे कुछ समझेगा क्या? तिलक क्या अपने लड़के को भी ईसाई नहीं बना सकते? सच में, यह मेरे ध्यान में कैसे नहीं आया? मेरे सीने में अब छुरियां लगी। पर दिखाने के लिए मैं पड़ोसियों समझाती की, क्या पता दत्तू की वजह से उनका मन पलट जाएगा।

 मन तो बहुत उदास हो गया था। रिश्तेदारों से पांच सौ मेल दूर, मैं अकेली पति और पुत्र के विरह से रातें रो रो कर कांटने लगी। 

 तिलका को जाकर तीन हफ्ते हो गए। लड़का कहाँ है, तिलक कहाँ है, वगैरा कुछ भी समझ नहीं आ रहा था। मैं स्वयं को ही दोष देने लगी। मैंने ही दत्तू को भेजा था। मन वह सोचता है, जो शत्रु भी नहीं सोचता। स्थानक नजीक ही था। हर रोज दो बार स्थानक पर जाकर, निराश होकर, मैं वापस आती थी।

 उधर भिकुताई ने मुझे लाने के लिए तिलक को भेजा। तिलक मुझे लेने आ गए। हट से मेरी न सुनते हुए, कार्य से इस्तीफा देकर केवल अंग पर पहने वस्त्र साथ लेकर हमने राजनांदगांव छोड़ा। ‘मुझे नागपुर में कुछ महत्त्वपूर्ण काम है, तुम आगे जाना’, ऐसा कहकर तिलक गायब हो गए। कुछ पैसे नहीं थे, नाक के नथ के अलावा कुछ अलंकार नहीं था। ऐसे विपन्नावस्था में मैं नासिक रोड स्टेशन पर उतर गयी। कैसे तो करके भिकुताई के घर के दरवाजे पे जाकर कड़ी हो गयी।
भिकुताई मेरी राह देख रही थी।  
मुझे ऐसी अवस्था में देखकर उसे रोना आया।
‘मने, यह तेरी क्या हालात हो गयी है!’
ऐसे कहकर उसने मुझे जोर से पेट को लगाया।
सीता निकली वनवास को, और पीछे लगी विपत्ति,
ऐसी मेरी अवस्था।

कुछ दिनों में तिलक वापस आ गए। मुझे लगा, की अब अच्छे दिन दिखेंगे। “कुछ कामधन्दा ढूंढता हूँ, कल जाना है”, ऐसा कहने लगे। जाते हुए तिलक ने घर के हर एक सदस्य को अलविदा कहा। दत्तू को गोद में लेते हुए जब वे उसे चूम रहे थे, तब उनकी आँखों से अश्रुधाराएँ बहने लगी थी। सब को लगा, की अब तिलक को पश्चात्ताप हुआ है। अब वे संसार में ध्यान देंगे, ऐसा लगने लगा। पर तिलक सीधे मुंबई निकल गएँ। मतलब तिलक का हमारे साथ हिन्दू बनकर रहने का वह आखिरी दिन हो गया। उधर तिलक ने अंधेरी में बाप्तिस्मा लिया।
 तीन – चार दिनों में सब वर्तमानपत्रों से तिलक के ईसाई होने की खबर आयी।

 मुझे कोई भी कुछ भी नहीं बता रहा था। सब दत्तू की तरफ करुणामय दृष्टी से देखते थे। घर में सब दुःख का साया था, खाने के ऊपर ध्यान नहीं था।  सब रिश्तेदार, मेरे भाई जमा हो गएँ। मेरा भाई और केशवराव, तिलक को ढूंढने मुंबई गया।

 वहां तिलक की और इन दोनों की मुलाकात हुई। तिलक ने उन्हें पूछा की “आप यहाँ क्यों आएँ?” तो केशवराव बोले, की, “हम आपको ढूंढने आये है। ” तिलक ने कहा की, “मैं ईसाई हो गया हूँ। आप अपने बहन को सम्हालिए। नाशिक के जलालपुर (नाशिक के पास का एक गाँव) में गंगा (गोदावरी नदी) है। वह जान वगैरा दे देगी। तो उसपर ध्यान रखिये। केशवराव ने कहा की, “जान देगी नहीं तो जिन्दा रहेगी, अब तुम्हारा और उसका कुछ सम्बन्ध नहीं है। ” ऐसा कहकर वे दोनों भरे अंतःकरण से वापस निकले। तिलक की चोटी को देखकर तो केशवराव रोने से स्वयं को रोक नहीं पाएं।

 यह मुझे कैसे बताएं, यह प्रश्न सब के सामने आ गया। मुझे बुलाया गया। पर कैसे बताएं यह उन्हें समझ में नहीं आ रहा था। मैंने पुछा की, “आप मुंबई गएँ थे, उनकी खबर निकालने के लिए। मुझे पहले बताना, की वे जिन्दा तो है ना ?”
“हाँ, जिन्दा है, खुशहाल है, आनंद में है, पर… “
“पर क्या?”
“वे ईसाई हुए है। “
“होने दो हो गए है तो, कहीं भी रहे लेकिन खुशहाल रहे। वे ईसाई हुए तो उन्होंने मेरे कपाल की चमड़ी थोड़ी ही निकाली है। “
ऐसा कहकर मैं झट से उठी। पर मेरे अंदर की सब शक्ति नहीं सी हो गयी। फिर रात को मैंने जान देने की भी कोशिश की, पर वैसा योग नहीं था। मैं एकदम स्तब्ध हो गयी। वैद्य कहने लगे, की इसने विष लिया है। पर मेरी हालात देखकर, भिकुताई बोली, की “आई की यह पागलों जैसी हरकतें और बाप की वैसी। दोनों मिलकर करो उस बच्चे की जिंदगी का खेल। मेरे पीछे इस पगली को कौन संभालेगा?”
 अब मेरा आश्रित जीना सुरु हो गया। मेरे भाई बहन ही क्या, शालक और भाभियाँ भी मेरी और दत्तू की देखभाल करती थी।

 शालक की बदली पंढरपूर को हुई, और मैं भिकूताई के साथ पंढरपुर आयी। वहां मेरे देवर सखाराम भाउजी भी रहते थे। वे भी कभी कभी आते और हमें कपडे देते।

 एक दिन तिलक की तार आयी। उन्हें मुझे मिलना था। मेरे मायके के लोगों के साफ़ साफ़ नहीं कहने पर तिलक की अगली तार आयी। उन्होंने उसमें न्यायालय जाने की धमकी दी थी। लडके का कब्ज़ा माँगा। मैं दत्तू को पकड़ कर बैठती। हाँ – नहीं करते करते मुझे तिलक को मिलने भेजा। मैंने उन्हें पूछा, की “मैंने ऐसा कौन सा अपराध किया जो आपने ऐसा किया?” तो तिलक बोले की, “तूने मेरा कोई अपराध नहीं किया है। मुझे जो रास्ता सही लगा, वह मैंने स्वीकारा है। ” इतनाही सम्भाषण हुआ। सोवळे का पालन करनेवाले नारायणराव गोखले की मैं लड़की। एक सनातनी कुटुंब में पलीबढ़ी। पति तो न कहते हुए ईसाई बन गया। उसे पत्नी और बच्चे की चिंता नहीं थी।
 मेरे मायकेवालों ने उनका शुद्धीकरण करने का भी प्रयास किया। उसके लिए शंकराचार्य जी के पास जाने की और जितना लगे उतना द्रव्य खर्च करने की तैय्यारी रखी। पर सब व्यर्थ था। तिलक को मिशन का सहाय्य तो था ही।

 कभी कभी तिलक के खत आते थे। मैं ईसाई होकर उनके पास जाऊं, ऐसा उन्हें लगता था और मुझे मेरा धर्म प्रिय था, क्या करें। तिलक से छुटकारा पाने के लिए मुझे भाई के पास जलालपुर भेजा गया। पर वहां भी उनके खत आते थे। कभी क्रोध के आवेश में कोरे ही रखते थे।

 और एक दिन एक मिशनरी औरत जलालपुर आयी। गांव के सब लोग भागने लगे। मैं घर में अकेली ही थी। हमारे दरवाजे पर आकर उस औरत ने मुझे कहा की, “तुझे महीने को दस रूपया देती हूँ, तुम तिलक के पास चलना। वह कितना अच्छा है, की उसने दूसरी शादी भी नहीं की। ” मैंने पूछा, की “आपको वकीलपत्र देकर भेजा है क्या?”उन्होंने जैसे दूसरी शादी नहीं की, वैसे मैंने भी नहीं की। उन्हें कहिये पहले पत्नी और बच्चे का देखो और बाद में चाहिए तो… “

 पति होते हुए भी मैं विधवा जैसी जी रही थी। इस सम्बंधि से उस सम्बन्धी तक। ऐसा करते करते सखाराम भाउजी के पास पंढरपुर में आयी। पर वहां भी तिलक के खत आते थे। पांडुरंग के मंदिर जाकर मैं घंटों रोटी थी। कोई कहता था, जाओ पति के पास, बहन भाई क्या जिंदगीभर पूछनेवाले है? जाओ अन्नछत्र में। मुझे परेशान करके रखा था। मैंने तो दत्तू के साथ तीर्थयात्रा जाने की ठान ली थी।

 कैसे तो करके इसकी भनक तिलक को लगी। वे पंढरपुर आ गए। घर के लोगों ने मुझसे बोलना बंद कर दिया। तिलक लड़के का कब्जा मांगने लगे। ना करते करते अंततः मैं असहाय्य होकर तिलक के पीछे निकली।

 कहते है न, ममता को लज्जा नहीं रहती।

:- रुपाली राहुल भुसारी
एम.फील. (राज्यशास्त्र) (पत्रकारिता आणि जनसंज्ञापन पदविका )
अभ्यागत अधिव्याख्याता, मुक्त पत्रकार और लेखिका

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